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“कविता” श्मशान घाट में मुर्दों के बीच चीख चीगखर कह रही थी कि तुम तो अपने समय का सुख भोगकर चिरनिद्रा में लीन हो गए और मुझे उन लोगों की बीच छोड़ गये जो ना तो जीवित होने की श्रेणी में आते हैं ना ही मरे लोगों की। यदि मैं उन्हें चलती फिरती लाश की संज्ञा दूँ जो ज्यादा बेहतर होगा। जीवित होते तो चैतन्यता का आभास होता और यदि मरे होते तो कम से कम स्थिर होते। आख़िर मैं जाऊं तो कहाँ जाऊँ। जिन साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं की मैं शान रही , प्रायः छपा करती थी वे तेज़ी से बंद हो रही हैं । कुछेक शेष हैं भी तो उनमें मुझे अपनी मौलिकता के साथ रहने का अधिकार नहीं है। कई रूपों में अलग-अलग नाम से बँट चुकी हैं। कुछ स्थानों में तो लोगों ने मुझे कमाई का साधन एवं मजाक बना रखा है। न मेरे आँसू दिखाई देते हैं किसी को न मेरा चीरहरण।

पहले मैं केवल साधकों , चिंतकों एवं विद्वानों की पहुंच तक सीमित हुआ करती थी, उनके जेहन एवं कलम की नोक पर रहा करती थी जबकि आज बाजारू चीजों की तरह तथाकथित कवियों एवं दुकानदारों के कब्जे में पहुंच गई हूँ।क्षणिक लाभ के लिए प्रकाशक एवं संपादक मेरे नाम पर कुछ भी छापने लगे हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं हैं बल्कि मेरा स्वरूप बिगाड़ने वाले देश ही नहीं विदेशों में भी धड़ल्ले से सैर करने लगे हैं और मिलीभगत से थोक के भाव पर सम्मानित हो रहे हैं। यहां तक कि जिन लोगों के पास मेरे संरक्षण एवं विकास का दायित्व है वे भी मेरे प्रचार प्रसार एवं उन्नयन के नाम पर सिर्फ़ औपचारिकता निभाने का काम कर रहे हैं। मेरे लिए नियुक्त किए विभाग प्रमुखों के पास भी पर्याप्त समय नहीं है। वो भी नियमानुसार प्राप्त सुविधा का लाभ उठाने में मशगूल है। मैं उसे भी दोष क्यों दूँ जब पहले ही कहा जा चुका है बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद। जिसका सरोकार दूर दूर तक साहित्य और संस्कृति से न हो और यदि उसे साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षक का दायित्व सौंप दिया जाए तो उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। आज ऐसे मूर्धन्य कवियों की भी कमी नहीं है जो एक ओर तो मुझपर अपना हक़ जताते है और मेरी तारीफ़ के पुल बाँधते हैं वहीं दूसरी ओर मेरा विमोचन कराने और फोटो खिंचवाने के मोह में तथाकथित थोपे गये संरक्षकों के आसपास मँडराने से नहीं चूकते। आज के कम्प्यूटर युग में नयी पीढ़ी को भावात्मकता रूप से जोड़ने एवं मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए मेरे योगदान को समझना एवं समझाना होगा।

संस्कृति तभी तक जीवित रहेगी जबतक समाज के दिलों में मैं अपनी मूल पहचान के साथ रची बसी रहूंगी। स्वयंभू ठेकेदारों के पैदा होने के कारण मेरी पैरवी करने वाले लोगों की संख्या में चिंताजनक गिरावट आई है । सपाटबयानी को मेरा नाम देने वालों से मैं तंक आ चुकी हूँ ।आखिर कबतक अपनी आँखों के आगे मैं अपने अपमान का दंश झेलती रहूंगी। इन बहुरूपिये मसखरों ने श्रोताओं का एवं पत्र – पत्रिकाओं से जुड़े दुकानदारों ने पाठकों का स्वाद बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। जबरन बोलकर पिटवाई गई तालियों एवं जुटाई गई भीड़ में मेरा दम घुटने लगा है इसलिए सोचा क्यों न श्मशान घाट में अपने पुराने साधकों के बीच जो अपनी कविता के बल पर आज भी ज़िन्दा हैं भले ज़माना उन्हें मुर्दा समझता हो जाकर दो घड़ी चैन से वक़्त बिताऊँ और अपनी असहनीय पीड़ा को साझा करूँ कि इनदिनों मुझे चलते फिरते मुर्दों के बीच अपने जीवित होने का अहसास नहीं हो पा रहा है । भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त तो हूँ लेकिन पूरी तरह निश्चिंत नहीं। यदि समय रहते लोग नहीं चेते तो आने वाली पीढ़ी भी यही कहेगी कि-
सूर सूर, तुलसी शशि, उडुगन केशवदास ।
अब के कवि खद्धोत सम, जहं तहं करत प्रकाश ।।

लेखक- डॉ0 माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
मकान नं-139, यूनीहोम्स कॉलोनी
पानी टंकी के पास, भाटागाँव
पोस्ट- सुन्दर नगर
जिला- रायपुर (छ.ग.) 492013
मो0-9424141875, 7974850694

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