सकल सृष्टि के कर्ता – भगवान श्री विश्वकर्मा

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वैदिक साहित्य ने सृष्टि के कर्ता भगवान विश्वकर्मा को माना है। इनके अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले। देवों के देव भगवान श्री विश्वकर्मा ने सदैव कर्म को ही सर्वोपरि बतलाया है। यह भी सर्वविदित है कि धन- धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा बाबा विश्वकर्मा की पूजा करने से पूरी होती है। पौराणिक साहित्य में उल्लेख है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय: सभी भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही बनाई गई थीं। यहां तक कि इन्द्रलोक, नर्क लोक, ‘स्वर्ग लोक’, रावण की ‘लंका’, ‘द्वारिका’, सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना, ‘हस्तिनापुर’ , धर्मराज युधिष्ठिर का राजभवन, शिव का दिव्य रथ,अर्जुन की ध्वजा, पुष्पक विमान,कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, देवताओं के दिव्य अस्त्र एवं शस्त्र, शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड , ब्रह्मांड, पाताल एवं संपूर्ण विश्व की रचना सहित अनेक देव स्थल ,भवनों, दिव्य अस्त्रों एवं शस्त्रों का निर्माण भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही किया गया था। बिना भगवान विश्वकर्मा की सहायता के देव लोक एवं पृथ्वी लोक में कोई भी कार्य सफल एवं पूर्ण नहीं हो पाता। जिसका उल्लेख वेद एवं पुराणों में मिलता है। भगवान विश्वकर्मा एक सौ आठ नामों से जाने जाते हैं किसी भी एक का स्मरण करने से दरिद्रता का नाश होता है, अभावों से मुक्ति मिलती है एवं मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं। उनके प्रसन्न होने पर ही इन्द्र देव वर्षा करते हैं। भगवान विश्वकर्मा सर्वशक्तिमान, सर्वगत एवं सर्वव्याप्त हैं। वे समस्त ब्रह्मांडों एवं लोकों का निर्माण क्षणभर में कर देते हैं।सूर्य- चन्द्रमा के रूप में लोकों को प्रकाशित करते हैं। सृष्टि का संपूर्ण रहस्य उन्हें ज्ञात है। प्रलय होने पर संपूर्ण विश्व को ख़ुद में विलुप्त कर लेते हैं। भगवान विश्वकर्मा द्वारा रची गई सृष्टि ब्रह्मा द्वारा रची गई मानी जाती है। जब विश्वकर्मा सृष्टि की रचना करते हैं तब ब्रह्मा कहलाते हैं, क्योंकि ब्रह्मा एवं विश्वकर्मा दोनों ही सृष्टिकर्ता का रूप हैं। भगवान विश्वकर्मा का जन्म ऋषि कुल में हुआ था। भगवान विश्वकर्मा के पाँच पुत्र – मनु, मय, त्वष्टा, दैवज्ञ (विश्वज्ञ) एवं शिल्पी नामक हुए। जो पंच पुत्र एवं पंच विधाता के नाम से सुविख्यात हैं। मनु-लोहे के, मय-काष्ठ के, त्वष्ठा-ताम्र धातु के, शिल्पी- पाषाण स्थापत्य के एवं दैवज्ञ-स्वर्ण धातु के अधिष्ठाता थे। भगवान विश्वकर्मा की पाँच पुत्रियाँ – सिद्धि ,बुद्धि (रिद्धि), उर्जस्वती , संज्ञा एवं पद्मा थीं। इन पाँचों में से दो सिद्धि और बुद्धि का भगवान श्री गणेश से विवाह हुआ।उनके लक्ष्य (शुभ) और लाभ नामक दो पुत्र हुए।ऊर्जस्वती श्री शुक्राचार्य को, संज्ञा सूर्य को एवं पाँचवी कन्या का विवाह मनु के साथ हुआ। भगवान विश्वकर्मा और उनके पाँचों पुत्रों ने विश्व को अभियांत्रिकी के वो आयाम दिए हैं जो आज भी वैज्ञानिकों एवं अभियंताओं की समझ से परे है। किसी भी निर्माण एवं अनुष्ठान से पहले भगवान विश्वकर्मा की पूजा मात्र से वह कार्य सफल एवं संपूर्ण होने की भावना जागृत हो जाती है। निर्माण कार्य में वास्तु शास्त्र का दोष नियमित विश्वकर्मा पूजन से दूर हो जाता है। आज सार्वजनिक रूप से पूरे विश्व में इनकी पूजा होती है। भगवान विश्वकर्मा के वंशजों एवं भक्तों को कभी भीख मांगते नहीं देखा गया। जो लोग अपने धर्म और कर्म पर विश्वास करते हैं माँ लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है। संसार में प्रलय का आना एवं उसका पुनः जीर्णोद्धार होना विश्वकर्मा भगवान की मर्ज़ी के बगैर नहीं होता। हम अपने प्राचीन ग्रंथो, उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही भगवान विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है। हमारे धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है. विराट विश्वकर्मा,धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्मा और भृंगुवंशी विश्वकर्मा। विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं। विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का देव कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है। जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे। कुछ धार्मिक ग्रन्थों का उल्लेख दृष्टव्य है –

• किंस्विदासो दधिष्ठानमाख्म्मण कर्मात्स्त्रत्कथासीत ।
यतो भूमिजनयन् विश्वकर्मा विद्या मौणोन्महिन विश्वचक्षा ( ऋग्वेद)

• आहूय विश्वकर्माणां कारयमास सदारम ।
मंडपं च सुविस्तीर्णा वेदिकावि मनोहरम ।।
अनेक चुक्षणर्चित नानाश्चार्य समन्वितम् ।।
स्थावर अंगम सार्व उद्दशन्तैमैनहिरम् ।।
जंगम विजितन्यत्र स्थावेरणां विशेषत।
जंगमेन च तत्रा सीज्जितम् सथावरमेवहि ।।
( शिव पुराण )

• विश्वकर्मा हः यज्ञनिष्ट देव आदिद्द गन्धवेदि अभवद द्वितीय
तृतीय पिता जनिर्तोधीनामपां गर्भ व्यदधात्पुरुत्रा (यजुर्वेद )

• त्वष्टा नौ दैव्यंवच पर्जन्यो ब्राह्मणस्पति ।
पुत्रे भ्राति भिरदितिर्नु पातु तो दुष्टर त्रामणवच।। (सामवेद)

• अर्थवणव वैदणु प्रभाव विश्वकर्मण।
तदहते प्रवक्ष्यामि ऋणु त्वबै षडानन ।। (अथर्ववेद)

• कि बहुत्रते न यत्स्वर्गे यतपातालेयदत्र च।
अति लोकोत्तर कर्म सत्सर्व वेतस्पमि स्वयम्।।
विश्वेषां विश्वकर्माणि विश्वेषु भुवशेषु च।
यत्तो ज्ञस्यसि तन्नाम विश्व कर्मेति डनध।। (स्कंद पुराण)

यहाँ मैं इस बात का उल्लेख करना उचित मानता हूँ कि सन 1909 में श्री रत्न रेवल रत्न वारिया की एक कृति को एल्वर्ड एडवर्ड रोक्टर्स ने विश्वकर्मा एंड हिज डिसैंन्डैंट’ के नाम से जब प्रकाशित करवाया तो विश्व के श्रेष्ठ अविष्कारकों एवं विद्वानों के मन में भगवान श्री विश्वकर्मा के बारे में सोच की नयी लहर पैदा हो गई। इस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है । तब लोगों को इस रहस्य का भी पता चला कि विश्वकर्मा धर्म के राजा ने लंका पर शासन भी किया था। प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने से पता चलता है कि विश्वकर्मा ब्राह्मणों के शत्रुओं ने भगवान विश्वकर्मा से संबंधित महत्वपूर्ण साहित्य को नष्ट कर दिया और सहीं जानकारी लोगों तक नहीं पहुंचने दिया। विश्व मे पहला तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीयम् ग्रंथ को ही माना गया हैं। शिल्प शास्त्र के सैकड़ों ग्रंथ रचे गये, जिसमें न केवल वास्तुविद्या बल्कि रथादि वाहन और रत्नों पर विमर्श है।‘विश्वकर्मा प्रकाश’ एवं नरेन्द्र शर्मा द्वारा रचित भगवान विश्वकर्मा महा पुराण विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। विश्वकर्मा प्रकाश को वास्तुतंत्र भी कहा जाता है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। धर्म एवं कर्म के प्रणेता भगवान श्री विश्वकर्मा को जिन्होंने अपने धर्म एवं कर्म को सदैव सर्वोपरि माना कोटिशः नमन है। अक्सर प्रश्न पूछा जाता है कि 17 सितंबर को ही क्यू मनायी जाती है विश्वकर्मा पूजा ? इसपर कुछ धर्मशास्त्रियों का मानना है कि भगवान श्री विश्वकर्मा का जन्म अश्विनमास की कृष्णपक्ष को हुआ जबकि कुछ लोगों का मत है कि उनका जन्म भाद्रपद मास की अंतिम तिथि को हुआ था। एक अन्य मानता में विश्वकर्मा पूजा को सूर्य के परागमन के अनुसार तय किया गया और यह दिन बाद में सूर्य संक्रांति के दिन रूप में माना जाने लगा। यह लगभग हर साल 17 सितंबर को ही पड़ता है इसलिए 17 सितंबर को ही विश्वकर्मा पूजा की जाती है। प्रतिवर्ष सत्रह सितंबर को औद्योगिक प्रतिष्ठानों, कारख़ानों, लोहे की दुकानों, वाहन विक्रय केन्द्रों, शोरूम्स, सर्विस सेंटर्स, कंस्ट्रक्शन एवं अभियांत्रिकी से संबंधित कार्यशालाओं में वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य भगवान श्री विश्वकर्मा की जयंती धूमधाम से मनाई जाती है। सभी धर्म -जाति के लोगों द्वारा मिलजुलकर उनकी भव्य मूर्ति स्थापित करके पूजा -अर्चना की जाती है एवं मशीनों, औज़ारों की सफ़ाई तथा रंगरोगन किया जाता है। इस दिन ज्यादातर कल- कारख़ाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की आराधना करते है।

डॉ0 माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक
मकान नं 139 , यूनीहोम्स कॉलोनी,
पानी टंकी के पास, भाटागाँव,
पोस्ट – सुन्दर नगर ,
जिला- रायपुर (छ.ग.)
पिनकोड – 492013
मो.9424141875
7974850694

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