संस्कृति और समृद्धि की अमूल्य निधि है हिंदी!

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हिंदी दिवस पर विशेष आलेख

लेखक- दिनेश कुमार गौड़

जब हम हिंदी की बात करते हैं तो निश्चय ही हमारा सीना गर्व से भर जाता है। हमें गर्व है कि हिंदी के अंतरास्ट्रीय स्वरूप को ध्यान में रखते हुए ही सर्व प्रथम ४ अक्टूबर १९७६ को तत्कालीन विदेश मंत्री, श्री अटल बिहारी बाजपेई जी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना मूल भाषण हिंदी में देकर विश्व के सामने हिंदी का गौरव बढ़ाया था। यहां मैं संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव श्री बानकी मून के उन शब्दों को उद्धृत करना चाहूंगा जो उन्होंने १३ जुलाई २००७ को राष्ट्र संघ के मुख्यालय में आयोजित आंठवे विश्व हिंदी सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहे थे! उन्होंने कहा था कि, “हिंदी एक मीठी भाषा है, जो दुनियां भर के लोगों को पास आने की कोशिश कर रही है। यह एक ऐसी भाषा है जो दुनियां भर की संस्कृतियों के बीच एक सेतु का काम करती है।

अगर वर्तमान से हम कुछ वर्ष पहले जाकर हिंदी के स्वरूप का आंकलन करें तो हम पाते हैं कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम की केंद्रीय भाषा रही हिंदी, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धीरे-धीरे अपना वर्चस्व खोती जा रही थी ऐसा इसकी अंतर्निहित क्षमता और शब्द समर्थ्य में न्यूनता के कारण नहीं, बल्कि उस भावना और सोच में निरंतर हो रहे ह्रास के कारण हो रहा था जो किसी राष्ट्र को संगठित रखने के लिए अपेक्षित है। वर्तमान में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने समूह २० (G 20) की अध्यक्षता करते हुए उनके द्वारा अंतररास्ट्रीय पटल पर हिंदी में दिए गए भाषण ने हमें जिनेवा में दिए गए तत्कालिन विदेश मंत्री माननीय अटल बिहारी बाजपेई जी के गरिमापूर्ण भाषण की याद को ताजा कर दिया। पर आज भी अंग्रेजी भाषा की दासता की मानसिकता अनेकों लोगों में सिर उठाकर प्रतीत होती है जो ब्रिटिश शासन के समय कतिपय लोगों में थी। आजादी के बाद कुछ समय तक वह भावना दबी रही, धीरे-धीरे वह पीढ़ी जिसने आजादी के लिए संघर्ष किया था, त्याग और बलिदान दिया था, समाप्त होती गई और क्षेत्रीयता की भावना बढ़ती गई। स्वार्थ और संकीर्ण राजनीति के चलते राष्ट्रीय मुद्दे हाशिए पर चले गए, देश की एकता के प्रायः सभी घटक शिथिल पढ़ते गए, राष्ट्रभाषा हिंदी भी उनमें से एक है।

भारत एक बहुभाषी देश है किंतु समस्त देश को एक सूत्र में बांधने के लिए राष्ट्र के कर्णधारों ने जिस भाषा का चयन किया था वह हिंदी थी। इसमें संदेह नहीं कि हमारे देश में कई भाषाएं हिंदी के साथ-साथ अपना विशिष्ठ स्थान रखती हैं और वे अधिक प्राचीन और समृद्ध हैं, किंतु वे एक सीमित क्षेत्र की भाषा होने के कारण पूरे देश की संपर्क भाषा के रूप में काम नहीं कर सकती। महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय एकता के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की पहचान की और इसे स्वतंत्रता आंदोलन का सशक्त माध्यम बनाया। स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुच्छेद 347 में हिंदी को देश की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया और अनुच्छेद 351 में इसके समुचित विकास का दायित्व भी केंद्रीय सरकार को सौंपा गया
भारत सरकार ने निसंदेह समय-समय पर सभी कदम उठाए जो हिंदी को देश की राजभाषा के रूप में विकसित करने के लिए आवश्यक थे। तकनीकी और पारिभाषिक शब्दों के चयन और निर्माण के लिए वर्ष १९६१ में तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली आयोग की स्थापना भी की गई। केंद्रीय हिंदी अनुवाद ब्यूरो का गठन किया गया, १९७५ में राजभाषा विभाग बनाया गया। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय हिंदी समिति गठित की गई जिसके निर्णय मन्त्रिमण्डल के निर्णय के समान होते हैं। प्रत्येक मंत्रालय और विभाग में संबंधित मंत्री की अध्यक्षता में हिंदी सलाहकार समितियोों की स्थापना की गई जो मंत्रालय में हिंदी के प्रोत्साहन और संवर्धन के लिए तथा हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने में सरकार को सलाह देती है। यही नहीं, राजभाषा अधिनियम १९६३ के नियम ४ के अधीन गठित ३० संसद सदस्यों की एक संसदीय राजभाषा समिति भी गठित की गई जो निरंतर भारत सरकार के कार्यालयों का निरीक्षण कर राष्ट्रपति को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है। चिंता की बात यह है कि इन सबके बावजूद हिंदी की जो स्थिति है वह किसी से छुपी नहीं है। आखिर क्या कारण है कि आज देश की राजभाषा के प्रति लोगों में आशाजनक उत्साह नहीं है। हिंदी के प्रयोग के आदेश आधे-अधूरे मन से कागजों तक सीमित रह जाते हैं। हिंदी में लिखना तो दूर हिंदी में बोलने वालों को छोटा और दोयम दर्जे का व्यक्ति माना जाता है। वे रूढ़ीवादी, प्रकृति विरोधी और पिछड़े हुए माने जाते हैं।आखिर क्या कारण है कि आजादी के 75 वर्ष के अमृत महोत्सव के बावजूद भी हम हिंदी को व्यावहारिक और प्रयोग की भाषा नहीं बना सके। राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग के आंकड़े केवल अनुवाद के वलबूते पर ही कागज तक सीमित है। शिक्षा के क्षेत्र में तो गंगा उल्टी ही बह रही थी जहां आजादी के बाद शिक्षा का माध्यम स्नाकोत्तर स्तर तक हिंदी और भारतीय भाषा रही थी। अब वह माध्यम उल्टा खिसक कर प्राथमिक स्तर पर अपने अस्तित्व को बचाने को संघर्षरत है। पहली कक्षा से ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनता जा रहा है, क्या इसे हिंदी की प्रगति कहेंगे या अंग्रेजी की?

अंग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना बुरी बात नहीं है, किंतु यह मातृभाषा की कीमत पर नहीं होना चाहिए। गांधी जी कहते थे कि बच्चों के विकास के लिए मातृभाषा का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना मां का दूध! क्या हम प्राथमिक स्तर पर बच्चों को एक विदेशी भाषा अंग्रेजी में शिक्षा देकर उसके विकास को अवरोध नहीं कर रहे? क्या हम उसके व्यक्तित्व को बोना नहीं बना रहे? बच्चे विदेशी भाषा को समझते नहीं रटते हैं। सभी शिक्षा शास्त्रियों ने इस संबंध में समान विचार व्यक्त किए हैं।
आइए हम हिंदी के प्रति बढ़ते हीनता की भावना के कारणों पर जरा ठंडे दिल से विचार करें। हिंदी आज विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। संसार में सबसे अधिक बोली और समझे जाने वाली सबसे बड़ी भाषा में हिंदी का स्थान प्रमुख है, पर विभिन्न आंकड़ों का यह पत्र भी हमे स्वीकार करना चाहिए कि भारत में हिंदी माध्यम का चुनाव करने वाले छात्रों का स्थान कम है। अंग्रेजी के व्यापक प्रचार के कई कारण हैं, आज शिक्षा ने एक उद्योग का रूप ले लिया है और अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूल क्या शहर क्या गांव गली-गली और मोहल्ले में कुकुरमुत्ता की भांति फैलते जा रहे हैं। करियर में अंग्रेजी के सब्जबाग दिखाकर बच्चों को सरकारी स्कूलों की बजाय इन स्कूलों में दाखिला लेने के लिए प्रेरित और आकर्षित किया जाता है। विज्ञापन और प्रचार का निवेश किया जाता है। यही अमृत रचना छात्रों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की ओर आकर्षित करती है। मां-बाप गाढ़ी कमाई का अधिक भाग इन पर लगा रहे हैं, कर्ज भी ले रहे हैं। उच्च शिक्षा के नाम पर देश का पैसा विदेशों में जा रहा है, प्रतिभा पलायन भी हो रहा है। किसी ने ठीक ही कहा है कि हम विदेशी सेवा के लिए बच्चे पैदा करते हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं को एक बड़ा झटका तब लगा, तब ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा (सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा) ने अंग्रेजी को पहली कक्षा से अनिवार्य बनाने की सिफारिश कर दी। उसने अंग्रेजी के वर्चस्व और भारतीय भाषाओं की अनुपयोगिता को हवा दे दी, उन्होंने देश की राजभाषा की समृद्धि के लिए कुछ भी नहीं किया। आश्चर्य है कि देश के प्रबुद्ध शिक्षा शास्त्रियों और भाषा विशेषज्ञों ने उनके विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाई? क्या हिंदी को गांव और शहरों की झोपड़पट्टी और समृद्ध लोगों की कॉलोनियो के समान स्तर पर शिक्षा देने में देश असमर्थ है? नहीं! तो अंग्रेजी के नाम पर असमानता क्यों पैदा की जाती है? उच्चतम न्यायालय भी भारतीय भाषाओं के विकास की दिशा में मौन है।

अब जरूर भारत सरकार ने जमीनी स्तर पर हिंदी के संवर्धन के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं, पर भारतीय अधिकारियों का अपेक्षित सहयोग ही हिंदी भाषा को उचित स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। डॉक्टर यशपाल और डॉक्टर कुलकर्णी जैसे विद्वान विशेषज्ञ मानते थे कि विज्ञान की शिक्षा बच्चों की उसकी अपनी भाषा में सबसे अधिक अच्छी प्रकार दी जा सकती है। हम अधिक समय तक तो शिक्षा के माध्यम को सीखने पर ही व्यय कर देते हैं, विषय पर नहीं! हम ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से केवल अंग्रेजी पर निर्भर करते हैं और उसके पीछलग्गू बने हुए हैं, जिससे हमारी राष्ट्रीय प्रतिभाएं कुंठित होती हैं। हिंदी के प्रति उदासीनता का एक कारण यह भ्रम भी है कि कंप्यूटर आने से हमारा काम काज अंग्रेजी में ही होगा, जबकि कंप्यूटर की कोई भाषा नहीं होती, उस पर किसी भी भाषा में काम किया जा सकता है। जब कंप्यूटर का पदार्पण भारत में हो रहा था, हमने तभी इसे अंग्रेजी और हिंदी में साथ-साथ लाने का प्रयास नहीं किया। यदि केंद्रीय सरकार इसकी हिंदी फॉन्ट भी साथ-साथ उपलब्ध करा देती, भले ही कुछ समय अतिरिक्त लग जाता तो कंप्यूटर पर केवल अंग्रेजी का ही वर्चस्व स्थापित न होता। किंतु अब कर्मचारियों को कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। फॉर्म आदि सभी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं पर निजी क्षेत्र में सरकार का कोई अंकुश नहीं है। उनको सरकारी मापदंड स्थापित कर राजभाषा नियमों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। सरकारी उद्यमों और निगमन में से अनेक उद्यम अब निजी क्षेत्र में चले गए हैं अब वहां उन्हें भी हिंदी में काम करने के लिए प्रेरित करना होगा। प्रशासन में केंद्र सरकार की भांति हिंदी में काम होना चाहिए। केंद्र सरकार के नियमों के अनुसार नए खुलने वाले संस्थानों, कार्यालय, योजनाओं के नाम पहले हिंदी में सूची जाएं फिर उनका रूपांतर अंग्रेजी में किया जाए। देश भर की भर्ती प्रतिभाओं के समुचित विकास के लिए और ज्ञान-विज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए सार्थक प्रयास होना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों को चाहिए कि वो अपने छात्रों के लिए विषय वस्तु का हिंदी अनुवाद उपलब्ध कराये ताकि सभी छात्रों को मामूली बातों के लिए भी माध्यम के लिए अंग्रेजी की अधिक आवश्यकता नहीं रही।

यदि हम कुछ बातों पर ध्यान दें तो हिंदी को लोकप्रिय बनाने में आवश्यक सहायता मिलेगी और हमारा राष्ट्रीय सम्मान भी बढ़ेगा। हिंदी को रोजगार के साथ जोड़ा जाए इसके लिए हमें उच्च शिक्षा संस्थानों प्रशिक्षण संस्थानों और व्यवसाय के केंद्रीय कार्यालयों एवं शिक्षा का माध्यम और न्यायालय में भी हिंदी में बहस की जाए और निर्णय दिए जाने का विकल्प दिए जाए तभी हिंदी की लोकप्रियता बढ़ेगी ।

फिजी में हुए १२वें विश्व हिंदी सम्मेलन के सफल आयोजन और विश्व पटल पर हिंदी की रस भरी छाप अब अपने स्वर्णिम युग में प्रवेश कर गई है। इस प्रकार आज हिंदी का स्वरूप एक राजभाषा से ऊपर उठकर एक अंतरास्ट्रीय भाषा का भी है और इसके विकास पर हमें इसी दृष्टि से ही विचार करना होगा।

(लेखक केन्द्रीय वस्त्र मन्त्रालय में हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य हैं)

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