धर्म व कर्म की परिकल्पना
धर्म अर्थात मानवीयकरण की प्रक्रिया का आशय “किसी मजहब, रिलीजन जाति या समुदाय से नहीं है अपितु उस लोक कल्याणकारी स्वरूप से है जिसका सीधा सम्बन्ध मानव श्रृष्टि को कायम रखने एवं विकास से है।” गांधी जी चाहते थे कि रामराज्य आये अर्थात सत्य एवं सत्य कार्य, उत्तम विचारों का अनुसरण करने वाला न्यायप्रिय, समस्त प्रजा का हित चाहने वाला शासन हो। क्योंकि समस्त में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, गरीब, अमीर सभी को शामिल किया गया है। आज गांधी जी की जिज्ञासा तो पूर्ण हुई लेकिन कार्य प्रणाली पूर्णतः विपरीत है।
यहाँ नारे तो राम जी के धरातल से लेकर उच्चकोटि स्तर तक लगाये जा रहे हैं, लेकिन राम जैसे आदर्शवादी विचारों का अनुसरण कोई नहीं कर रहा है। इसका एक राजनीतिक कारण यह भी है कि अधिकतर राजनैतिक दल धर्म के नाम पर वोट बैंक का सहारा लेकर अबोध प्रजा का ध्रुवीकरण करा रहे हैं, वे कभी नहीं चाहते कि देश में एकता, अखण्डता, एवं बंधुता की भावना को बढ़ावा मिले। उनका तो सीधा अंग्रेजों वाला फार्मूला है, “फूट डालो राज करो।” समाज के गरीब, असंगठित एवं अशिक्षित वर्ग को हिन्दू मुस्लिम, जाति, समुदाय का पाठ पढ़ाकर आपस में लड़ाना और कुर्सी हथियाना ही इनकी प्राथमिकता में होता है, यही उनका धर्म है। सही मायने में धर्म की उत्पत्ति “धृ” धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना, सहन करना, लेकिन आज का मानव सहन करने को तैयार ही नहीं। इसका एक मूल कारण सोशल मीडिया पर भ्रामक पोस्ट भी शामिल है, जिससे भटका हुआ मानव बिना सोचे-समझे किसी भी कृत्य, कदम उठाने के लिए तत्पर रहता है और दुष्परिणामों का शिकार होता है।
वास्तव में भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत “धर्म ही व्यक्ति का कर्म है” यह सदगुण है, उस कार्य को करने का जो उचित, सत्य एवं प्रमाणित है।
लेखक- तेजपाल विश्वकर्मा पुत्र देवेन्द्र सिंह विश्वकर्मा, निवासी- मिलक नेकपुर, जिला- संभल (उ0प्र0) मो0- 9756502508, 6397577417