आज़ादी की बिसात पर सभ्यता का हनन
पूरा देश आज़ादी की 74वीं वर्षगांठ यानी स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। प्रतिवर्ष जैसे ही 15 अगस्त नजदीक आता है, देशवासियों की रगों में स्वतंत्रता का लहू तेजी से दौड़ने लगता है। लोगों के हर्ष की कोई सीमा नहीं रह जाती। कुछ भी बोलने और कहने की आज़ादी सभी नागरिक को है। यहां तक कि आज़ादी की बिसात पर सभ्यता का हनन आम बात हो गई है। अमर बलिदानियों ने अपनी शहादत सिर्फ देश की आज़ादी के लिये नहीं दिया था। उनका सपना था कि स्वतंत्रता के बाद भारत एक सभ्य देश और भारत के लोग सभ्य नागरिक होंगे। देश को आज़ादी तो मिल गई पर सभ्यता जो पहले थी भी वह भी धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई।
आये दिन अखबारों में या टेलीविजन पर ऐसा समाचार देखने को मिल ही जाता है जो आज़ादी के अपमान के साथ ही अमर बलिदानियों की शहीद आत्मा को भी झकझोर देती है। कुछ लोगों का एक समूह हाथों में तख्तियां लेकर नारा लगाते हैं कि- “हमें चाहिये आज़ादी, हम लेकर रहेंगे आज़ादी।” अब सवाल उठता है कि क्या अभी लोगों को आज़ादी नहीं मिली है? यदि मिली है तो इनको और कौन सी आज़ादी चाहिये? आये दिन “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे बुलन्द होते रहते हैं। भारत के अन्दर पाकिस्तान का झण्डा लहराये जाते हैं तो फिर और कौन सी आज़ादी चाहिये? इतनी आज़ादी तो मिल ही गई, फिर और कौन सी आज़ादी चाहिये?
आज़ादी के नाम पर इस देश की सभ्यता समाप्त होने को है। लोगों के सिर पर आज़ादी का जश्न मनाने का जुनून है तो राजनीति के चक्कर में सभ्यता को तार-तार करने में तनिक भी पीछे नहीं हैं। आज़ादी ने लोगों को बोलने की इतनी स्वतंत्रता दे दी है कि देश का प्रधानमंत्री “फेंकू” और विपक्ष का नेता “पप्पू” कहा जाने लगा है। स्वतन्त्र मीडिया को “गोदी मीडिया और पत्तलकार” जैसी उपाधि मिल रही है। सत्तापक्ष का कार्यकर्ता “अंधभक्त” तो विपक्ष का कार्यकर्ता “चमचा” कहा जाने लगा है।
लोगों को इतनी आज़ादी मिल गई है कि सारे सोशल प्लेटफार्म कूड़ेदान हो गये हैं। नफ़रत की आंधी ने “सोशल मीडिया” को “अन सोशल” बना दिया है। सोशल मीडिया का तात्पर्य था कि जो बातें किसी कारण मीडिया में न आ सकें उसे सामाजिक लोग सोशल मीडिया में पोस्ट कर दें जो शासन-प्रशासन व सरकार तक आसानी से पहुंच सके। लोगों को बोलने-कहने की आज़ादी क्या मिली, देश की संस्कृति और सभ्यता खतरे में पड़ गई। क्या अमर बलिदानियों का सपना यही था? क्या लोगों ने अपनी मां की गोद और पत्नी की मांग इसीलिए सूनी कर फांसी के फंदे पर मुस्कुराते हुये झूल गये थे?
सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति को ऐसी नज़र लगी कि पहले मुगलों ने, फिर अंग्रेजों ने देश में बलात शासन किया। देश के लोगों की आंखों से आंसू की जगह खून गिरते थे। देश की नारियों की अस्मत सरेआम नीलाम होती रही। सभ्यता नाम की चीज रह ही नहीं गई थी तब जाकर भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर इस देश को आज़ाद कराया। अपने प्राणों की आहुति इसीलिये दी कि उनका प्यारा भारत देश बलात शासकों से आज़ाद होने के बाद भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ विकास के पथ पर अग्रसर होगा।
देश को आज़ादी के अभी 74 वर्ष ही हुये हैं। इन 74 वर्षों में ही देश की दुर्दशा देख आंखों में आंसू आ रहे हैं। जिस सभ्यता को दुनिया सलाम करती रही है आज उस पर ग्रहण है। इसका जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि यही सभ्य समाज है जो असभ्यता को बढ़ावा दे रहा है। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत राजनीतिक पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, जो पार्टी विजयी होती है वही सरकार बनाती व चलाती है। चुनाव में हार-जीत एक सतत प्रक्रिया है परन्तु अब यह प्रक्रिया दुश्मनी में बदलती जा रही है। इस राजनीतिक दुश्मनी ने एक नई परिपाटी को जन्म दे दिया है जो असभ्यता का जीता-जागता उदाहरण है। सभी पार्टियों ने अपनी आईटी टीम बना रखी है। इस टीम का ज्यादातर काम असभ्यता फैलाना ही है। नफरत भरी फोटो एडिट करना, वीडियो एडिट करना और उसे विभिन्न माध्यमों से परोसना ही इनकी जिम्मेदारी है। कभी प्रधानमंत्री को गधे पर बैठाया जाता है तो कभी विपक्ष के नेता को कुत्ते की शक्ल दे दी जाती है। क्या यही भारतीय सभ्यता है? क्या यही आज़ादी है?–
कमलेश प्रताप विश्वकर्मा
आदरणीय प्रणाम
और विश्वकर्मा किरण परिवार को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
जय हिंद जय भारत
अतुलनीय
सादर प्रणाम ??