गाँधी मार्ग से ही मानवता का कल्याण और देश का विकास संभव

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गाँधी के दर्शन का सर्वोदय समाज है. गाँधी का सर्वोदय समाज वर्ग संघर्ष से नही आता है बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता से आती है. देश में सामाजिक – आर्थिक विषमताएं काफी बढ़ गई है. जाति – पाति और धर्म – मजहब के नाम पर लोगो को बांटा जा रहा है. साम्प्रदायिक ताकतें हावी होती जा रही है. लिहाजा आज प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का आधार ही कमजोर हो गया है. गाँवो की स्थिति कमजोर हो गयी है, खेती-किसानी से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है. गाँधी के इस देश में किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. देश के किसानों और मजदूरों की हालत अच्छी नहीं है. गाँधी ने कहा था की यदि आप प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग करोगे तो इसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर पड़ेगा. आज चारों ओर प्राकृतिक संसाधनों की लूट मची हुई है. भोग-विलासिता के नाम पर वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, जंगलों से वन्य प्राणी लुप्त होते जा रहे हैं. छद्म विकास के नाम पर लोग गाँधी के सपनों को भूलते जा रहे हैं. गाँधीवादी मॉडल ही समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है.
गाँधी कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि एक महान विचार और विचाधारा हैं. गाँधी के विचारों को जन-जन तक ले जाने की जरुरत है. इसके लिए गाँधी को समझने से ज्यादा उनके विचारों को लोगों को अपने जीवन में उतारने की जरुरत है. शासन-प्रशासन भी गाँधीजी को महज कागजों पर ही सिमट कर रखते हैं. उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर जुमलेबाजी और घोषणाएं बहुत होती है लेकिन वह भी सिर्फ कागजों पर ही. नीति-निर्माण में भी गाँधी के सपनों की अनदेखी हो रही है. लोग गाँधी को भूलते जा रहे हैं, उनके विचार आज सिर्फ किताबों तक ही सिमट कर रह गयी है. ऐसे में देश और मानवता का कल्याण संभव होता नहीं दिख रहा है. समाज में तेजी से संकीर्णतावादी सोच बढ़ रहे हैं. अमीर और गरीब के बीच की खाई दिनानुदिन बढती ही जा रही है. राष्ट्रपिता गाँधी को किसी खास जाति-धर्म में बांध कर नहीं देखा जा सकता है. गाँधी सर्वव्यापी हैं. गाँधी तो मानवतावादी सिद्धांत के परिचायक थे. गाँधी एक ऐसे धागे के सामान हैं जो आज इस जाति, धर्म, संप्रदाय, मजहब, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर बिखरे व भटके हुए भारतीय समाज को फिर से एक सूत्र में पिरो सकते हैं. गाँधी ने अपने विचारों से मानव जाति को विकास की एक नयी दिशा प्रदान की. फलतः उनका प्रभाव आज भारत तक ही सीमित नहीं है वरन वे वैश्विक हो गए हैं. विश्व के अन्य देश भी अब गाँधीजी के विचारों के माध्यम से अपनी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास करने लगे हैं तथा वे इस हेतु अहिंसा और सत्याग्रह की तकनीक को एक अधिक उचित एवं कारगर तकनीक समझने लगे हैं.वस्तुतः महापुरुष गाँधी के विचार सदियों तक जिन्दा रहेंगे.गाँधी के विचार आज देश – दुनिया और सभी कालों में प्रासंगिक हो गए हैं.
यह बिडम्बना ही है की आज गाँधी मार्ग पर कई अनैतिक कार्य हो रहे हैं. गाँधी जी का अपमान कागजी मुद्राओं के माध्यम से हो रहा है. सरकार जिस कागजी नोटों पर बापू की तस्वीर छाप कर उनको सम्मान दे रही है. ’बापू’ की तस्वीर मुद्रित वही कागजी रुपये शराबखाने, वेश्यालयों, वधशालाओं से लेकर चोर-डकैत और अपराधियों तक पहुँच रही है. चूँकि, गाँधी इन चीजों को महापाप मानते थे और लोगों को इससे दूर रहने की नसीहत देते थे. ऐसे में सरकार को नोटों पर गांधीजी की तस्वीर छापने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. गाँधी जी का अपने ही देश में हो रहा यह अपमान असहनीय पीड़ा के समान है. मेरा व्यक्तिगत मत है की कम से कम गाँधीजी की तस्वीर वाली नोट सरकार नहीं छापे. क्योंकि गाँधी राष्ट्र के चरित्र हैं. वे लोगों के आदर्श हैं. जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा है. भी गांधीजी को एक महान अविष्कार के समान मानती है. आज समाज का नैतिक और चारित्रिक पतन हो गया है. गाँधी की जितनी प्रतिष्ठा विदेशों में है उतना अपने देश में नहीं हो रहा है. यह अत्यंत ही निंदनीय और सोचनीय विषय है. जब दुनिया गाँधी को मान रही है तो हम उन्हें क्यूँ भूलते जा रहे हैं. यह बिडम्बना ही है की जिस व्यक्ति ने अपने सिधान्तों से देश और दुनिया को अवगत कराया की भारत विश्व गुरु है.सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को भारत छोड़ने को मजबूर कर दिया. जिसने अपने उत्कृष्ट सोच से देश को नयी दिशा और दशा प्रदान की वही गाँधी आज अपने ही देश में उचित सम्मान पाने को लालायित हैं. आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं जिसमे राज्य का मुख्य लक्ष्य लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है. ‘’सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय’’ की तर्ज पर सभी लोगों का कल्याण करना ही एकमात्र ध्येय होनी चाहिए मगर दुर्भाग्य की बात है की जिस व्यक्ति (गाँधी) ने भारतीय समाज को एक नयी दिशा और उर्जा प्रदान की, उन्हें दरकिनार कर लोग अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं.
आजादी के दशकों बाद भी लोग अपनी मातृभाषा को भूलते जा रहे हैं. मातृभाषा हिंदी को अपने ही देश में उचित तरजीह नहीं मिल पा रही है. लोग स्वराज और स्वदेशी की बात भी अंग्रेजी में ही कर रहे हैं. यहाँ तक की सरकार भी इस मसले पर गंभीर नहीं है.मातृभाषा या हिंदी पखवारा दिवस पर नेता और अधिकारी हिंदी में कामकाज करने का संकल्प लेते जरुर हैं मगर उन्हें मूर्त रूप नहीं दे पाते हैं. देश में मातृभाषा पर अंग्रेजियत हावी है. कार्यालय से लेकर पाठ्य पुस्तकों तक में हिंदी से ज्यादा अंग्रेजी को तरजीह दी जा रही है. निजी स्कूलों में अंग्रेजियत हावी है. यह सच है की समय की मांग और बदलते परिवेश में अंग्रेजी की जरुरत है लेकिन इसका कतई मतलब यह नहीं होना चाहिए की हम अपनी मातृभाषा को भूलकर विदेशी भाषा को ज्यादा तरजीह दें. गांधीजी भी यह मानते थे की ज्यादा अंग्रेजियत हमें फिर से गुलाम बना देगी.स्वाभाविकतः आज गाँधी का सपना अपने ही देश में कुंठित हो रहा है. गाँधी के सपने को जीवंत बनाये रखने के लिए मातृभाषा हिंदी को अधिकाधिक तवज्जो देने की जरुरत है. कार्यालय कार्य हिंदी में ही सम्पादित हो.साथ ही साथ स्वदेशी पोशाक और परिधान को भी बढ़ावा देने की जरुरत है. आज खादी और सूत से बने कपडे की जगह लोग फैशनबल परिधान को प्राथमिकता दे रहे हैं.गाँधी का ड्रीम ग्राम स्वराज और स्वदेशी आज कराह रहा है.लघु और कुटीर उद्योग खत्म हो गए हैं. ग्लोबलायजेशन के इस दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति हावी है. लोग चरखे और देशी सूत से बने कपड़े को पसंद नहीं कर रहे हैं. प्रधानमंत्री से लेकर राजनेता तक गाँधीजी के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर राजघाट जाकर उन्हें नमन करते है वहीँ दूसरी ओर योग दिवस पर चटाई चीन से मंगवाते हैं. स्वदेशी को बढ़ावा देना होगा.हमें इस मानसिकता से उबरना होगा तभी गाँधी के सपने साकार हो सकते हैं.
गाँधी की विचारधारा आज के परिपेक्ष्य में काफी उपयोगी और अनुकरणीय है.गाँधी के बताये मूलमंत्र से ही समस्याएं खत्म होगी और राष्ट्र प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकेगा. गाँधी का मानना था की जब गांव सुदृढ़ और विकसित हो जाये तो स्वतः देश आगे बढ़ जायेगा. गांधीवाद से देश ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व का कल्याण संभव है क्यूंकि गाँधी सर्वव्यापी हैं. मानवता ही गाँधी का प्रतीक है. समाज में परिवर्तन गाँधी दर्शन से ही आ सकता है. आज गाँधी आचरण की नितांत अवश्यकता है. गाँधी के विचारों और मूल मंत्रों को गांव-गांव और जन-जन तक पहुँचाने के लिए सरकार को ‘विकास मित्र’ की जगह ‘’गाँधी मित्र’’ को हर गांव और पंचायत स्तर पर बहाल करना चाहिए. ताकि ये ‘’गाँधीमित्र’’ लोगों को बापू के विचारों के साथ-साथ स्वच्छता और जन जागरूकता से उन्हें अवगत करा सके.
वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य आज बहुत ही चिंतनीय है. स्वतंत्रता के दशकों बाद भी आम आदमी को रोटी, कपड़ा, शिक्षा, चिकित्सा और मकान जैसी मूलभुत सुविधाएं उपलब्ध नही है. समाजवाद महज एक छलावा बन कर रह गया है. बहुजन समाज का राजनैतिक अर्थ वर्ग विशेष को मान लिया गया है. देश में सर्व शिक्षा अभियान का झूठा नारा दिया जा रहा है. गरीब और भी गरीब होते जा रहे हैं. अमीर और भी धनाढ्य होते जा रहे हैं. लिहाजा, अमीर और गरीब के बीच की खाई भी चौड़ी होती जा रही है. पूंजीपतियों का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है. लिहाजा जनता की उपेक्षा करता यह तंत्र लोकतंत्र शब्द का उपहास करता सा प्रतीत होता है.
15 अगस्त 1947 को जब पूरा देश आजादी के जश्न में सरोबोर था. राजधानी दिल्ली में रंगारंग समारोह आयोजित थे और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ‘नियति से साक्षात्कार’ की बात कर रहे थे. उन्होने अपने भाषण में यह भी कहा था कि ‘अब अपनी कसम पूरा करने का वक्त आ गया है. ’दरअसल, यह कसम प्रजातंत्र में सबों कि भागीदारी सुनिश्चित करने और दलितों, पिछड़ों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने की थी. लेकिन, दुर्भाग्य से पंडित नेहरु और उनके बाद के प्रधानमंत्रियों द्वारा इस दिशा में किये गए प्रयास नाकाफी साबित हुए. प्रजातंत्र के रहनुमाओं की जनविरोधी नीति एवं भ्रस्त नियत के कारण जनता में प्रजातंत्र को लेकर ‘असंतोष’ एवं ‘अविश्वास’ लगातार बढ़ता ही जा रहा है. अधिकांश लोग यह मानने लगे हैं कि प्रजातान्त्रिक सरकारें अयोग्य एवं अक्षम होती हैं. कई लोग तो यहाँ तक जुमलेबाजी करते हैं कि वर्तमान प्रजातंत्र अंग्रेजों के शासन से भी गया – गुजरा है. वैसे कश्मीर एवं पूर्वोत्तर सहित पूरे देश में सफलतापूर्वक चुनाव संचालन को भारतीय प्रजातंत्र कि प्रौढ़ता का उदहारण माना जा सकता है. लेकिन घटना वोट का प्रतिशत प्रजातंत्र के प्रति जनता की उदासीनता एवं अविश्वास को उजागर करता है. फिर नक्सली एवं आतंकी संगठनों के चुनाव बहिष्कार कि घोषणाओं के इतर कई क्षेत्रों में आम मतदाता भी वोट का बहिष्कार करने को मजबूर होते हैं. यह इस बात का प्रमाण है कि वर्तमान प्रजातंत्र आम जनता कि अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है. यह जनता को स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय प्रदान करने में विफल रहा है. साथ ही इसके जरिये सबों के ‘विकास’ एवं ‘सुशासन’ के लक्ष्यों को भी पूरा नहीं किया जा सका है. आज आजादी के 70 वर्षों के बाद भी देश कि सत्तर फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर – बसर करने को मजबूर हैं. लगभग पचास फीसदी आबादी निरक्षर है. हजारों किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी है. मजदूरों कि छटनी हो रही है. उन्हें सरकारी और गैर – सरकारी क्षेत्रों में काम से निकाला जा रहा है. नौकरियाँ खत्म की जा रही है. देश में आर्थिक मंदी चा गया है. अर्थव्यवस्था कराह रही है.
बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी और विषमता बढ़ती जा रही है. राजनीति में आपराधिकरण, भ्रष्टाचार, पूंजीवाद, जतिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, भाई – भतीजावाद और सिद्धांतहीनता का बोलबाला है. ऐसी विकट परिस्थिति में ‘गाँधी’ ही एकमात्र विकल्प हैं इसलिए वर्तमान प्रजातंत्र में गाँधी की प्रासंगिकता काफी बढ़ी है.
‘’प्रजातंत्र जनता का………..है’’ यह परिभाषा भ्रमजाल में पड़कर हम प्रजातंत्र कि जो कल्पना करते हैं, उस कल्पना से वर्तमान प्रजातंत्र कि प्रकृति सर्वथा भिन्न है. वर्तमान प्रजातंत्र में ‘प्रजा’ निरीह एवं ‘पंगु’ है और तंत्र राजतन्त्र से भी ज्यादा ‘निरंकुश’ एवं ‘पाखंडी’ हो गया है. इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर राजनेता, नौकरशाह और पूंजीपतियों – माफियाओं के बीच जनविरोधी गठजोड़ भी सामने आ रहा है. इसमें जनता कि शक्ति को मात्र ‘वोट’ देने के औपचारिक अधिकार तक सीमित कर दिया गया है और इस अधिकार का भी कभी जाति एवं धर्म के नाम पर तो कभी लोभ एवं भय के सहारे अपहरण कर लिया जाता है. ऐसे में वर्तमान प्रजातंत्र को पूंजीतंत्र, सरकारी तंत्र, अल्पतन्त्र या प्रतिनिधितंत्र कहना ज्यादा उपयुक्त है.
स्पष्टः वर्तमान प्रजातंत्र के व्यवहार गाँधी के राज्यविहीन अहिंसात्मक एवं विकेन्द्रीकृत ‘ग्राम स्वराज’ के आदर्शों से मेल नहीं खाते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपने सपनों के भारत के सम्बन्ध में कहा था कि –‘मैं एक ऐसे भारत के लिए प्रयास करूँगा, जिसमे गरीब से गरीब आदमियों को भी यह अनुभव हो कि यह देश उनका है और इसके निर्माण में उनकी कारगर भूमिका है. एक ऐसा भारत जिसमे सभी समुदाय पूर्ण मैत्रीभाव के साथ रहेंगे. ऐसे भारत में छुआछूत के अभिशाप अथवा मादक द्रव्यों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं होगा. स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होंगे……………………मेरे सपनों का भारत यही है.’
मौजूदा लोकतंत्र में कई तरह कि बुराइयाँ हैं और इस आधार पर कुछ लोग प्रजातंत्र को ही नकारने कि बात करने लगे हैं. लेकिन, ऐसा करना आत्मघाती होगा. क्यूंकि प्रजातंत्र ने जनता को कई तरह कि शक्तियां दी हैं जो कि राजतन्त्र और तानाशाही व्यवस्था में संभव नहीं है. फिर प्रजातंत्र में निरंतर सुधार कि गुंजाईश भी है. साथ ही एक अहम बात यह है कि अभी प्रचलित लोकतंत्र सही अर्थों में लोकतंत्र है ही नहीं. इसलिए हमें वर्तमान लोकतंत्र कि कमियों एवं खामियों को दूर कर सच्चे लोकतंत्र को शासन के साथ-साथ समाज एवं आम जीवन में भी अंगीकार करने कि जरुरत है. इस दिशा में हमें गाँधी के कार्यों और विचारों से प्रेरणा मिल सकती है.
वर्तमान प्रजातंत्र में हर ओर अनैतिकता का बोलबाला है.आज राजनीति का एकमात्र लक्ष्य येन-केन प्रकारेण सत्ता पाना है. वोट के लिए पैसा बांटने से लेकर साम्प्रदायिक सौहाद्र बिगाड़ने तक से हमारे नेता परहेज नहीं करते हैं. जनता भी जाति, धर्म. क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर वोट करती हैं और लोभ-लालच में पड़कर अपना वोट बेचने से भी परहेज नहीं करती है. फिर हमारे चुने हुए प्रतिनिधिगण (वार्ड पार्षद से लेकर संसद तक) भी अपने वोट का सौदा करते हैं. सरकार बनाने और गिराने के लिए भी पैसों का खुलेआम लेन – देन होता है. सूरा-सुंदरियाँ भी इसमें अहम भूमिका निभाती हैं. हालत यह है कि संसद में प्रश्न पूछने के लिए भी रिश्वत ली जाती है. देश के हालात ऐसे हैं की आज गाँधी के हत्यारे की पूजा और महिमामंडन कुछ तथाकथित विचारधारा के राजनीतिक दल के द्वारा किया जा रहा है.
हम जानते हैं कि सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी गाँधी ने कभी भी नैतिकता का दामन नहीं छोड़ा. जाहिर है कि गाँधी राजनीति का आध्यात्मीकरण करना चाहते थे और प्रजातंत्र में नैतिकता का समावेश करने के लिए यह आवश्यक भी है. ऐसे में वर्तमान प्रजातंत्र को नैतिक बनाने के लिए गाँधी के आदर्शों से प्रेरणा लेने की जरुरत है. सुखद पहलु यह है की आज देश राष्ट्रपिता गाँधी जी की 150वीं जयंती समारोह मना रहा है.
अंततः हमें गाँधी के जीवन दर्शन से सीख लेने की जरुरत है. लोगों का दायित्व बनता है की वे गाँधी के विचारों को जीवंत बनाये रखें तभी हमारा देश और मानवता जिन्दा रहेगा. इसके लिए गाँधीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से सीख लेनी होगी और उनके विचारों का अनुसरण करना होगा. गाँधी का खुद मानना था कि ‘’गाँधी मर सकता है लेकिन गांधीवाद हमेशा जीवित रहेगा’’.

– लेखक के ये अपने विचार हैं.

लेखक – डॉ0 दीपक कुमार दिनकर
( लेखक गाँधीवादी विचारक के साथ–साथ तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर में राजनीति विज्ञान विषय में बीपीएससी से सहायक प्रोफेसर के पद पर चयनित हुए हैं।)

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