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महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर देश-विदेश में गांधी को याद किया जा रहा है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। लेकिन कटु सत्य यह है कि देश आज गांधी के विचारों से काफी दूर जा चुका है। गांधी ने उस आजाद भारत का सपना देखा था जहां शराबबंदी होगी और जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले सत्ता का उपयोग जन सेवा के लिए करेंगे। धरातल का सत्य यह है कि आज जन सेवा के नाम पर अधिकतर जनप्रतिनिधि मेवा उड़ा रहे हैं और शराब से आने वाले राजस्व से प्रदेशों की सरकारें चल रही हैं।
शराबबंदी को लेकर महात्मा गांधी इस प्रकार सोचते थे, शराब की आदत मनुष्य की आत्मा का नाश कर देती है और उसे धीरे-धीरे पशु बना डालती है। जो पत्नी, मां और बहन में भेद करना भूल जाता है। शराब के नशे में यह भेद भूल जाने वाले लोगों को मैंने खुद देखा है। शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होने वाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों से होने वाली हानि की अपेक्षा असंख्य गुनी ज्यादा है। कारण, बीमारियों से तो केवल शरीर को ही हानि पहुंचती है, जबकि शराब आदि से शरीर और आत्मा, दोनों का नाश हो जाता है। मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा, लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं, मैं यह कीमत चुकाकर भी शराब खोरी को बंद करूंगा।
जन सेवक कैसा हो उसके बारे में समझने के लिए एक प्रसंग आप सभी के सम्मुख रखना चाहूंगा, यह घटना उस समय की है, जब गांधीजी साबरमती आश्रम में रह रहे थे। एक दिन एक नवयुवक उनके पास आकर बोला, बापू मैं भी देश-सेवा करना चाहता हूं। आप मुझे मेरे योग्य कोई सेवा बताइए। मैं अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञाता हूं। मैंने उच्च स्तर तक पढ़ाई की है और मेरे रहन-सहन का स्तर भी ऊंचा है। युवक को लगा कि उसके ऐसा बताने से गांधीजी उससे प्रभावित होंगे और उसे उच्च स्तर का कार्य सौपेंगे। गांधीजी बोले, फिलहाल तो आश्रमवासियों के भोजन के लिए कुछ गेहूं बीनने हैं, क्या आप इसमें मदद करेंगे? यह सुनकर युवक ने बेमन से गेहूं बीनने शुरू कर दिए। उसे गेहूं बीनते हुए काफी देर हो गई तो थकावट से चूर युवक बोला, बापू अब आज्ञा दीजिए। दरअसल, मैं शाम का खाना जल्दी ही खा लेता हूं। उसकी इस बात पर गांधीजी बोले, कोई बात नहीं, आज आप यहीं पर खाइए। आश्रम का भोजन भी अब तैयार होने वाला ही है। युवक ने आश्रम का सादा भोजन बड़ी मुश्किल से अपने गले के नीचे उतारा और अपने बरतनों को भी स्वयं ही साफ किया। जब वह जाने लगा तो गांधीजी युवक के कंधे पर हाथ रखकर बोले, नौजवान, तुम्हारे अंदर देश-सेवा की भावना होना अच्छी बात है, किंतु देश-सेवा के लिए मन निर्मल, स्वच्छ होना चाहिए और मन में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने के बजाय, सबको एक समान समझने की भावना होनी चाहिए। जो व्यक्ति किसी में फर्क नहीं समझता, वही सब धर्मों, सब स्तरों से ऊपर उठकर सेवा कर सकता है। मेरे ख्याल से तुम समझ गए होगे कि मैं तुम्हें क्या कहना चाह रहा हूं?
गांधी अनुशासन और नम्रता में अटूट संबंध मानते थे। गांधी अनुसार अनुशासन और नम्रता से आयी हुई आजादी ही सच्ची आजादी है। अनुशासन से अनियंत्रित आजादी, आजादी नहीं, स्वेच्छाचारिता है, उससे स्वयं हमारे और हमारे पड़ोसियों के खिलाफ अभ्रदता सूचित होती है। हमें दृढ़तापूर्वक कठोर अनुशासन का पालन करना सीखना चाहिए। तभी हम कोई बड़ी और स्थायी वस्तु प्राप्त कर सकेंगे और यह अनुशासन कोरी बौद्धिक चर्चा करते रहने से या तर्क और विवेकबुद्धि को अपील करते रहने से नहीं आ सकता। अनुशासन विपत्ति की पाठशाला में सीखा जाता है। और जब उत्साही युवक बिना किसी ढाल के जिम्मेदारी के काम उठायेंगे और उसके लिए अपने को तैयार करेंगे, तब वे समझेंगे कि जिम्मेदारी और अनुशासन क्या है।
आज का सत्य यह है कि गांधी ने जिस आजाद भारत का जो सपना देखा था वह सपना बनकर ही रह गया है।

लेखक- सत्यनारायण
छात्र- बीए राजनीति विज्ञान (सम्मान)
बनारसी लाल सर्राफ वाणिज्य महाविद्यालय, नवगछिया
तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर
निवास- पुर्वीघारारी खरीक, भागलपुर
मोबाइल- 8877211531/6202576559
ईमेल- [email protected]

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