परिवार में वट वृक्ष के समान होते हैं बुजुर्ग

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भागलपुर। भारत में संयुक्त परिवार की अवधारणा शुरू से रही है, जिसमें बुजुर्गों को परिवार का धरोहर माना जाता रहा है। बुजुर्ग परिवार में वट–वृक्ष के समान होते हैं जिनकी छाया में पूरा परिवार आगे बढ़ता है। हालाँकि, मौजूदा समय में एकल परिवार के बढ़ते प्रचलन से बुजुर्गों के मान–सम्मान में कमी है। “मातृदेवो भव: पितृदेवो भव:” की परम्परा वाले भारत में बुजुर्गों पर अत्याचार और उनकी अनदेखी अब आम बात हो गयी है। बुजुर्गों पर अत्याचार सिर्फ उनके परिवार वाले ही नहीं करते हैं बल्कि सरकारें भी बुजुर्गों का ख्याल रख पाने में विफल साबित हो रही है। दुनिया भर में बुजुर्गों की बढ़ती आबादी के साथ उनके समुचित परवरिश, देखभाल और अधिकारों पर चर्चा करना समीचीन प्रतीत होता है। चूँकि, प्रत्येक वर्ष 1 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। विशेषतया भारत को युवाओं का देश कहा जाता है जहाँ एक बड़ी आबादी युवाओं की है। वर्ष 2014 के यूएन रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व का सबसे बड़ा युवाओं का देश है। यहां 356 मिलियन युवा 10-24 वर्ष के हैं। वहीं, चीन इस मामले में दूसरे स्थान (269 मिलियन) पर है। एक ओर भारत जहां नौजवानों का देश है वहीं, हाल के वर्षों में बुजुर्गों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। साथ ही बढ़ते जनसंख्या दर के अनुपात में आने वाले समय में बुजुर्गों की संख्या में भी वृद्धि होगी। 2050 तक भारत सहित दुनिया के तक़रीबन 64 देशों में ‘ओल्ड एज’ की अधिकता हो जायेगी। ऐसी स्थिति तब ज्यादा भयावह हो जायेगी जब 2050 तक विकासशील राष्ट्रों में बुजुर्गों की संख्या 80 फीसदी तक हो जायेगी।
सेंसेक्स रिपोर्ट के अनुसार भारत में ओल्ड एज (60 वर्ष से ऊपर) की संख्या दस करोड़ से ज्यादा है। आज सम्पूर्ण विश्व वृद्धों की स्थिति को लेकर चिंतित है। आर्थिक सुदृढता एवं क्रियाशीलता वृद्धावस्था को खुशहाल करने में कारगर सिद्ध हो सकता है। वस्तुतः वृद्धावस्था (बुजुर्गावस्था) कोई अभिशाप नहीं है बल्कि यह मानव के शारीरिक विकास की एक सतत प्रक्रिया है। अर्थात, बुजुर्गावस्था प्राकृतिक और जैविक प्रक्रिया है। बुजुर्ग परिवार में वट—वृक्ष के समान होते हैं। आज वृद्धावस्था को मानव जीवन के प्राकृतिक भाग के रूप में स्वीकार करने की जरुरत है। आज भाग-दौड़ भरी जिंदगी और न्यूक्लीयर फैमिली की अवधारणा से बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है। न्यूक्लियर फैमिली में बुजुर्ग हेंडीकेप्ट हो जाते हैं। परिवार के मजबूत आधार स्तम्भ के भूमिका का निर्वहन करने वाले बुजुर्गों की उपेक्षा कतई न्यायोचित नहीं है। किसी भी समाज के लिए यह अत्यंत ही गंभीर चिंता का विषय है। बुजुर्गों के मान-सम्मान से ही सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। हालाँकि, बुजुर्गों के साथ उत्पीड़न की आशंका एशिया के दूसरे देशों के मुकाबले भारत में सबसे कम होती है। एक अध्ययन के मुताबिक कहा गया है कि भारत में 14 फीसदी बुजुर्गों के समक्ष मानसिक, शारीरिक और आर्थिक शोषण का सामना करने की आशंका होती है। एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश चीन में यह आंकड़ा 36 फीसदी है। वहीं उत्तर एवं दक्षिण अमेरिका में बुजुर्गों के उत्पीडन का प्रतिशत 10-47 फीसदी के बीच है।
आंकड़ों के आधार पर भारत में सबसे कम सताए जाते हैं बुजुर्ग—
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम(यूएनडीपी) के अनुसार वर्ष 2010 में भारत में 60 साल से अधिक उम्र के लोगों की अनुमानित आबादी 9 करोड़ थी। आज 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की बड़ी आबादी के लिए नीतिगत उपायों को लागू करने की जरुरत है। यह सच है कि उम्रदराज लोग भारत की अर्थव्यवस्था और अपने अर्थव्यवस्था के जरिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर योगदान दे रहे हैं।
क्या है क़ानूनी और संवैधानिक प्रावधान-
बुजुर्गों के मानवाधिकारों की चर्चा प्रायः गौण हो जाती है। जबकि 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकार किये गए अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पत्र में शामिल कुल तीस अनुच्छेदों में से पहले अनुच्छेद में स्पष्ट रूप से सभी मानवों को गरिमापूर्ण जीवन जीने
के अधिकारों का जिक्र है। भारत में भी बुजुर्गों की देखभाल के लिए 1999 ई0 में नेशनल पालिसी ऑन ओल्डर पर्सन्स (एनपीओपी) बनाया गया है। 2007 ई0 में पुनः मेंटेनेस एंड वेलफेयर ऑफ सीनियर सिटिजेन एक्ट लाया गया। इस एक्ट के तहत संतान का कर्तव्य है कि वो बुजुर्ग मां-बाप की जरूरतों का ख्याल रखें ताकि वो एक खुशहाल जिंदगी जी सकें। भारत में 1999 ई0 में लाए गए एक्ट के तहत साठ वर्ष से ऊपर के नागरिकों को ‘सीनियर सिटीजन’ का दर्जा दिया गया है। बुजुर्गों की देखभाल और समुचित परवरिश और अधिकारों का उल्लेख भारतीय संविधान में भी किया गया है। भारतीय संविधान के भाग चार में वर्णित राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत के अनुच्छेद- 41 में कहा गया है कि वृद्धों (बुजुर्गों) की देखभाल, शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिक और जनसहयोग सहित पोषण स्तर में वृद्धि राज्य करेगी। वहीं, अनुच्छेद-47 में जन स्वास्थ्य और लोगों के रहन-सहन को उन्नत करने की बात कही गयी है। इस संवैधानिक प्रावधान के द्वारा राज्यों को इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाने के लिए निर्देशित किया गया है। इसके अलावा डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट के द्वारा भी बुजुर्गों की उचित देखभाल का उल्लेख है। सीआरपीसी की धारा 125(i)(d) के तहत न्यायालय किसी व्यक्ति को मेंटेनेंस ऑफ पैरेंट्स एक्ट के अन्तर्गत बुजुर्गों की समुचित देखभाल और परवरिश का आदेश जारी कर सकता है। हिंदू एडोप्सन और मेंटेनेस एक्ट, 1956 की धारा 20(3) के द्वारा भी बुजुर्गों की सुरक्षा व समुचित व्यवस्था का उल्लेख है।
क्या है समस्याएं?—
परिवार से अलगाव, बहिर्गमन, नियंत्रण की कमी, भय का माहौल, पारिवारिक रूप से नकारा जाना, स्वास्थ्य समस्या, आर्थिक समस्या के साथ-साथ बुजुर्गों में उपार्जन की स्थिति घट जाती है जिससे परिवार उन्हें बोझ समझने लगता है। जागरूकता और अधिकारों की सही जानकारी का अभाव, सामाजिक मान्यताएं और नियमों का अभाव, अशिक्षा आदि के चलते भी बुजुर्गों के साथ सौतेला व्यवहार होता है। एक आंकड़ा के मुताबिक 65 फीसदी बुजुर्ग अर्थिक रूप से निर्बल हैं। महज 35 फीसद बुजुर्गों के पास ही अपनी निजी सम्पति, धन, मकान तथा अपने परिवार और बच्चों का सहयोग मिल पाता है। बुजुर्गों को परिवार के द्वारा नकारा जाना, स्वास्थ्य सुविधाएँ नही मिलना, उनके साथ मारपीट, गाली-गलौज, अमर्यादित व्यवहार, अपमान, उपेक्षा, दोस्तों व परिवार के सदस्यों से नहीं मिलने देना, इमोशनल ब्लैकमेलिंग, भोजन, वस्त्र, दवा और अन्य आवश्यक सुविधाओं से महरूम रखना, उनकी सम्पतियों को जबरन छीनना या कब्ज़ा करना आदि गंभीर समस्याओं से जूझना पड़ता है। इसके अलावे बुजुर्गों को सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ता है।
यूनाईटेड नेशन्स पॉपुलेशन फण्ड की रिपोर्ट के मुताबिक-
-भारत के नब्बे फीसदी बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने के लिए सारी उम्र काम करना पड़ता है।
-करीब साढ़े पांच करोड़ बुजुर्ग लोग रोजाना रात को भूखे सोने को विवश हैं।
-भारत में बुजुर्ग पेंशन के नाम पर सरकारें जीडीपी का सिर्फ 0.03% हिस्सा ही खर्च करती हैं।
-हर 8 में से 1 बुजुर्ग को लगता है की उनके होने या न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है।
-तक़रीबन पांच करोड़ बुजुर्ग गरीबी रेखा से नीचे रहने को मजबूर हैं। देश में अगले चार दशकों में बुजुर्गों की संख्या लगभग तिगुनी हो जाएगी। निश्चित ही आने वाले दिनों में बुजुर्गों के लिए सुरक्षा, आवास, स्वास्थ्य और मनोरंजन को लेकर तमाम प्रकार की समस्याएँ भी बढ़ेगी। समस्या का एक कारण सामाजिक बदलाव भी है। नगरों का विकास अधिक होने से गांव से शहर की ओर पलायन तेजी से बढ़ा है। उन बुजुर्गों की दशा तो और भी चिंतनीय हो गयी है जो केवल खेती पर ही निर्भर हैं। एकल परिवार में नयी पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच एक जेनेरेशन गैप लगातार बढ़ रहा है। एक वक्त था जब माता-पिता को आदर्श मान उनका सम्मान किया जाता था। पूरे संसार में शायद भारत ही एक ऐसा देश है जहां तीन पीढियां सप्रेम एक ही घर में रहती थी। आज पाश्चात्य सभ्यता के वशीभूत देश के नौजवान माता-पिता के साथ चंद मिनट बिताना भी मुनासिब नही समझते।
क्या है सरकारी प्रावधान-
बात चाहे जितनी हैरत अंगेज लगे लेकिन तथ्य यही है की देश में एक तरफ बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है तो वहीं दूसरी तरफ उनकी मदद के लिए किये जा रहे सरकारी प्रयास में कमी आयी है जो खेदजनक है। लेकिन बुजुर्गों की मदद के लिए चलाये जा रहे इंटीग्रेटेड प्रोग्राम फॉर ओल्डर पर्सन्स के तहत किये जाने वाले प्रयासों के दायरे में गत कुछ वर्षों में कमी आयी है। गौरतलब है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय वर्ष 1992 से यह कार्यक्रम चला रहा है। कार्यक्रम के अन्तर्गत स्वंयसेवी संस्थाओं, पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकाय के हाथ मजबूत किये जाते हैं ताकि वे बुजुर्ग लोगों को आश्रय, भोजन, चिकित्सा सुविधा मुहैया करायें। बुजुर्गों की हालात बयां करती सरकारी रिपोर्ट संकेत करती है कि देश के ज्यादातर बुजुर्ग सरकारी सहायता की कमी के कारण आर्थिक रूप से या तो अपने परिवार जन के आसरे हैं या आराम की उम्र में भी अपना खर्च चलाने के लिए कोई न कोई काम करने को मजबूर हैं। रिपोर्ट के मुताबिक जीवन निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर सबसे ज्यादा बुजुर्ग पुरुष (43 प्रतिशत) केरल में है और सबसे कम जम्मू-कश्मीर (21 प्रतिशत) में। वहीं, जीवन निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर बुजुर्ग महिलाओं की सबसे ज्यादा संख्या (81 फीसदी) असम में है और सबसे कम हरियाणा (44 फीसदी) में।वृद्धापेंशन से सम्बन्धित यूनाईटेड नेशन्स के एक हालिया आंकलन में कहा गया है कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धा पेंशन योजना के तहत बीते सालों में पेंशन पाने वाले बुजुर्गों की संख्या तो बढ़ी है (1.5 करोड़ से अधिक बुजुर्ग) लेकिन इस योजना पर सरकार अब भी अपने सार्वजानिक खर्चे का महज 1 प्रतिशत से भी कम खर्च करती है और केंद्र सरकार या राज्य योजना पर खर्च की जाने वाली रकम आधी से भी कम है। बुजुर्गों के कल्याण के लिए वर्तमान समय में सरकारी स्तर पर कई योजनाएं चलायी जा रही हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से बुजुर्गों को दी जाने वाली वृद्धा पेंशन महज एक छलावा है। कुछेक राज्यों को छोड़कर इस स्कीम के तहत दी जाने वाली राशि इतनी कम होती है कि बुजुर्गों के जीवन यापन की बात करना बेमानी साबित होगी। मात्र दो से चार सौ रुपए की मासिक पेंशन, कैसे किसी के जीवन को आर्थिक सुरक्षा प्रदान कर सकती है? माननीय उच्चतम न्यायालय ने बुजुर्गों के लिए पेंशन की व्यवस्था को भी खाद्य सुरक्षा से जुड़े अधिकारों का हिस्सा बनाने की बात कही थी लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ठोस कदम नही उठाया। जब आर्थिक दृष्टि से भारत से कमजोर देश नेपाल, केन्या और दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देश इस बाबत महत्वपूर्ण कदम उठा सकते हैं तो भारत क्यों नहीं? दरअसल, भारत में राजनीतिक इक्छाशक्ति की कमी और युवाओं की बुजुर्गों के प्रति अवहेलना उनके जीवन को दुश्वार बनाती जा रही है।
उम्र के अंतिम पड़ाव में क्या करें बुजुर्ग–
-अनुभव के आधार पर अपनी उपयोगिता बढ़ानी होगी।
-परिवार के लिए उपयोगी और प्रोडक्टिव बनना होगा।
-मौजूदा हालात में स्थिति-परिस्थिति से समझौता करना होगा।
-शारीरिक सक्रियता लाने की जरुरत।
-आर्थिक सबलता के लिए उन्हें पार्ट टाइम जॉब या अन्य कार्यों पर खुद को संलग्न करना होगा इससे वे स्वस्थ भी बने रहेंगे।
-संयुक्त परिवार की अवधारणा को बनाए रखने की जरुरत।
सिर्फ कानून से बुजुर्गों की देखभल नहीं हो सकती है—
आंकड़े बताते हैं कि कोई भी कानून हमारे आदर, सम्मान और भावनात्मक रिश्तों की है क्योंकि हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी बुजुर्ग जरुर होता है। इसके लिए सामाजिक और पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन जरुरी है। इसलिए सभी लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी और जब सोच और नजरिया बदलेगा तभी बुजुर्गों का जीवन और समाज बदलेगा। चीन के मुकाबले भारत एक युवा देश है, लेकिन भारत को ये नहीं भूलना चाहिए की एक दिन भारत की युवा आबादी भी बूढ़ी होगी इसलिए अभी से ही हमें ऐसे समाज बनाने की जरुरत है जहां बुजुर्गों को उचित मान-सम्मान मिल सके और उन्हें अकेलेपन का एहसास न हो। उम्र और अनुभव असल में एक अत्तिरिक्त विशेषता ही होती है। नयी पीढ़ी को बुजुर्गों के अनुभव से सीख लेनी चाहिए। अंततः बुजुर्गों के होश और अनुभव तथा युवाओं के जोश के समन्वित रूप से ही देश तरक्की का मार्ग प्रशस्त करेगा। साथ ही “हेल्दी एजिंग, फ्रेंडली एजिंग” की अवधारणा को विकसित करनी होगी। यह लेखक के अपने विचार हैं।

(लेखक न्यूट्रीशन सोसाइटी ऑफ इण्डिया भागलपुर चैप्टर के संयुक्त सचिव के साथ–साथ तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर में बीपीएससी से राजनीति विज्ञान विषय में सहायक प्रोफेसर के पद पर चयनित हुए हैं।)

डॉ0 दीपक कुमार दिनकर
सहायक प्रोफेसर राजनीति विज्ञान
तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार
सह संयुक्त सचिव, न्यूट्रीशन सोसाइटी ऑफ इण्डिया भागलपुर चैप्टर
मो0: 7979006089/9430027031
ईमेल: [email protected]

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