अहंकार का त्याग करें
यदि हम वास्तव में समाज सेवा कर रहे हैं तो हमें अहंकार का त्याग करना होगा। हम उम्र में कितने ही बड़े क्यों न हों, हम आर्थिक रूप से कितने ही सक्षम क्यों न हों, हमारे पास संसाधनों की भरमार क्यों न हो, यदि हम सामाजिक कार्य में जुड़े हैं तो हमें अपनी उन सभी चीजों का यूं कहें अहंकार का त्याग करना ही पड़ेगा। त्याग का मतलब सिर्फ उन चीजों का वैचारिक त्याग से है।
जब तक हम समाज के कमजोर तबके के लोगों के बीच यह नहीं साबित करते कि ‘मेरे पास सब कुछ होते हुये भी आपके समकक्ष हूं’, तब तक लोगों का जुड़ाव आत्मीय रूप से नहीं होगा। निचले पायदान के लोगों, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के दिमाग में हमेशा यह बात गूंजती रहती है कि अमुक तो बड़ा आदमी है, उसके पास पैसों की खान है भला मैं उससे कैसे जुड़ पाऊंगा।
उसका यह सोचना भी गलत नहीं है, क्योंकि वर्तमान परिवेश में यह हावी है। समाज में अक्सर देखने को मिलता है कि आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति किसी संगठन का अध्यक्ष है, उस संगठन का कोई पदाधिकारी यथा उपाध्यक्ष, महासचिव, सचिव आदि में से कोई आर्थिक सम्पन्न है तो वह अपनी सम्पन्नता के आगे अध्यक्ष को कुछ नहीं समझता।
अध्यक्ष की क्या गरिमा है, उसे भंग करने में भी मिनट मात्र का समय लगता है। मैनें तो स्वयं संस्था के सचिव द्वारा अध्यक्ष को आदेश देते हुये प्रत्यक्ष देखा है। अध्यक्ष भी उस सचिव के आदेश को सहर्ष इसलिये स्वीकार करता है कि संस्था का ज्यादातर खर्च आर्थिक रूप से सम्पन्न वह सचिव ही वहन करता है। अध्यक्ष, सचिव के आदेश को मान तो लेता है पर मन की खिन्नता बरकरार रहती है। उसे इस बात का आभास है कि यदि मैं भी आर्थिक रूप से सक्षम होता तो यह मुझे आदेश नहीं देता।
संगठन के पदाधिकारियों और सदस्यों में संस्कार, शिष्टाचार और अनुशासन होना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति संस्था का अध्यक्ष है, वह भले ही आर्थिक रूप से कमजोर है फिर भी हमें उसके साथ अध्यक्ष की गरिमा के अनुरूप व्यवहार करना चाहिये। सही बात तो यह है कि आर्थिक कमजोर व्यक्ति ही समाज के बीच ज्यादा समय दे पाता है और सक्षम व्यक्ति कभी-कभार।
हां, कुछ ऐसे सक्षम लोग हैं जिनका व्यवसाय या प्रतिष्ठान बिना उनकी मौजूदगी में ठीक चल रहा है तो वह भी समाज के बीच काफी समय देते हैं। ऐसे लोग काफी संस्कारित व व्यवहारिक होते हैं, वह लोगों का सम्मान करना जानते हैं। कमी तो उन लोगों में है जो सिर्फ दिखावे के लिये आते हैं, उनमें न तो संस्कार होता है और न अनुशासन। वह लोग अपने को बहुत बड़ी हस्ती के रूप में शुमार करने में लगे रहते हैं। हम अपनी बात ऐसे ही लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। यदि वास्तव में समाज के बीच काम करना है, मन में समाजसेवा की भावना है तो अपने अहं को त्यागकर, दिखावे को त्यागकर, वास्तविक भूमिका में आकर समाज को एकजुटता की राह पर ले चलें।