विश्वकर्मा समाज में व्याप्त कुरीतियां-दुष्परिणाम-समाधान

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अपनी अनूठी सर्जन शक्ति एवं बेजोड़ शिल्प निर्माण कला के लिए विख्यात रहने वाला, सादगी व सद्व्यवहार पूर्ण जीवन शैली के कारण नेकी कर दरिया में डालने की परंपरा का अनुसरण करने वाला विश्वकर्मा समाज आज कई सामाजिक कुरीतियों का शिकार बना हुआ है। जिस समाज को अपनी रचनात्मकता एवं सर्जनात्मकता के बल पर सबसे पहले नये सात्विक नियमों व संस्कृति के हितकारी तत्वों एवं पुरापंथी के स्थान पर नवीन एवं युगानुकूल नैतिक मूल्यों से अपना उद्धार करना था, वस्तुतः वह अपनी खोखली कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, ढकोसलों एवं पाखंडपूर्ण रवैयों के चलते विकास व नव-निर्माण की प्रक्रिया से कोसों दूर होता चला गया। जिसका कारण है कि हमारे समाज ने कभी अपनी कुरीतियों की आंतरिक विवेचना एवं विश्लेषण पर जोर न देते हुए उसके समूल पतन का बीड़ा उठाया ही नहीं। जहां दूसरे कई संख्याबल में छोटे समाज वर्गों ने अपनी कुरीतियों व कुप्रथाओं को भांपते हुए उनसे निजात पाने का प्रयत्न कर अपने समाज को सामाजिक सरोकारों व समतामूलक भावनाओं से सुदृढ़ कर अपनी छवि को चमकाने का अभूतपूर्व प्रयास किया। वहां यह कहते हुए खेद हो रहा है कि हमारा समाज अपेक्षानुसार प्रदर्शन नहीं कर पाया। यहां यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वह एक तरह से इससे अछूता ही रहा और जिससे पिछड़ता चला गया।
हमें जिस समय अपनी सामाजिक एकता, सौहार्द एवं सद्‌भाव का परिचय देकर अपने समाज को विकास की अगली कतार में खड़ा करने की जरूरत थी, उस समय हम आपसी फूट, परस्पर घृणा व बैर की भावनाओं में लिप्त रहकर अपने को और अपने समाज को पीछे धकेलते रहे। जिसका खमियाजा आज पूरा विश्वकर्मा समाज भुगत रहा है। समय-समय पर समाज के सम्मेलन, प्रोत्साहन कार्यक्रम, शिक्षा एवं चेतनाप्रद साहित्य का अभाव, नेतृत्व क्षमता की कमी, समाज की जगह स्वयं में व्यस्त और मस्त रहने की प्रवृत्ति के कारण हमारे समाज में आज भी ऐसी कुरीतियां मुंहबाये खड़ी हैं, जिनसे गुलामी वाले भारतीय समाज की दुर्गंध आ रही है। यह अत्यंत सुखद है कि देर दुरस्त ही सही आज विश्वकर्मा समाज की कुरीतियों, दुष्परिणामों व उनके समाधान जैसे अहम विषय पर बहस की जरूरत समझी जाने लगी है। निःसंदेह, उम्मीद की जानी चाहिए कि एक सार्थक विचार-विमर्श, मनन और मंथन के बाद हम एक ऐसे कुरीतिविहीन विश्वकर्मा समाज का पुनर्गठन करने में सक्षम हो सकेंगे, जहां समाज की विभिन्न जातियों में आंतरिक वैमनस्य व अंतर्विरोध की भावनाएं न होकर प्रेम एवं भाईचारे से एक साथ मिलकर विकास करने की प्रेरणा जगेगी।
उपर्युक्त विषयांतर्गत यहां विश्वकर्मा समाज की कुछ ऐसी कुरीतियों का उल्लेख किया जा रहा हैं, जो उत्तर आधुनिकतावाद के इस युग में समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। और साथ ही इन कुरीतियों के दुष्परिणामों का जिक्र कर समाधान की राह सुझाने का भी प्रयत्न किया जा रहा है।
1. सगाई के लिए साठा की प्रथा-
हमारे समाज में सगाई की रस्म बिना साठे के संपन्न होनी मुश्किल है। यदि घर पर बहू लानी है तो बेटी देनी होगी। इस प्रथा के कारण जिस परिवार में बेटे ही बेटे हैं उनके लिए साठा देने में कई अड़चनें आती हैं। ऐसे अभिभावकों को अपने बेटे की सगाई के लिए रात-दिन एक करना पड़ता है। कई दिमागी घोड़े दौड़ाकर रिश्ते-नातेदारों की बेटी के साठे के साथ अपने बेटे की सगाई करवानी पड़ती है।
दुष्परिणाम- समाज में बिना साठे के सगाई करने वाले संबंधी से पैसों की पेशकश की जाती है। यानी दहेज की एक अनोखी परंपरा का प्रचलन हो चला जहां बेटे पक्ष को बेटी पक्ष वाले दहेज न देकर बेटे पक्ष वाले बिना साठे की बेटी लेने जाने के लिए बेटी पक्ष को पैसे देने के लिए बाध्य हैं। इस तरह के संबंधों से शादी के बाद एक जोड़ी के दाम्पत्य जीवन में बिखराव आ जाने से इसका विपरीत असर दूसरी जोड़ी के दाम्पत्य जीवन पर भी पड़ने लगता है।
समाधान- साठे की सगाई का समाधान आपसी समझ से ही संभव है। समाजबंधुओं को समझना होगा कि बेटी कोई सौदे की वस्तु नहीं है। यह विश्वास जगे कि बेटी जहां भी ब्याह कर जायेगी वहां खुश रहेगी। बिना साठे की सगाई की पहल खुद से करें।
2. मृत्युभोज- 
समाज में मृत्युभोज का प्रचलन अब भी जारी है। हमारे कई महापुरुषों व समाज सुधारकों ने मृत्युभोज को एक बड़ी कुरीति बताकर इसका निषेध करने की बात कही है। यहां तक किसी भी धार्मिक ग्रंथ, वेद, उपनिषद् में मृत्युभोज को अनुमति प्रदान नहीं की गई है। हमारे सोलह संस्कारों में भी मृत्युभोज का कोई स्थान नहीं है। तो फिर क्यों हमारा समाज मृत्यु के पांच-सात दिन बाद मृत्युभोज का पाखंड रचता है?
दुष्परिणाम- इससे मृतक परिवार का दु:ख कम होने के बजाय बढ़ता है। पैसों की बर्बादी होती है। आखिर कोई कैसे रोते हुए माहौल में हलवा-पूरी खा सकता है? ऐसे आयोजनों से समाज में गलत संदेश जाता है।
समाधान- जीवन की मंजिल मृत्यु है। यही शाश्वत सत्य है। जो होता है परमात्मा की मर्जी से होता है। मृत्यु कोई प्रदर्शन की चीज नहीं है। मेल या मौका तथा करबा जैसे कुप्रथाएं मृतक व मृतक परिवार के प्रति सहानुभूति के बजाय उनके दु:ख को बढ़ाती है। ऐसे आयोजनों में जाने से हर समाजबंधु को बचना चाहिए। ऐसी कुप्रथा के लिए समाज को बंदिशें लगाने के लिए आगे आना चाहिए। मृत्युभोज के स्थान पर बिछड़ने वाले की आत्मा की शांति के लिए एक दिन उपवास करने की परंपरा बना देनी चाहिए।
3. विवाह संबंधी कुरीतियां – बाल विवाह, फिजूल खर्ची, अन्न की बर्बादी, ओढमणी-
समाज में बेटियों के प्रति संपूर्ण रूप से सोच नहीं बदली है। इसी कारण बेटी के पैदा होते ही मां-बाप को उसके हाथ पीले करने की जल्दी रहती है। यह अति-शीघ्रता कई बार बाल विवाह की कुरीति व अपराध को जन्म देती है। वहीं विवाहों के आयोजनों में दिनोंदिन तब्दीली आ रही हैं। ढोल और थाली की जगह डीजे, महंगे आमंत्रण पत्र, खाने की बर्बादी, अप्रत्यक्ष रूप से दहेज देने जैसी प्रथाएं समाज का भौंडा प्रदर्शन दिखा रही है। वहीं ओढमणी यानी कपड़ों के लेन-देन की प्रथा महिलाओं में तनाव व अलगाव पैदा करने में आमादा है।
दुष्परिणाम- बाल विवाह से कम उम्र में गर्भवती होने वाली कन्या को शारीरिक व मानसिक समस्याओं से जूझना पड़ता है। विवाह समारोहों में फिजूल खर्ची से धन का अपव्यय होता है। इसके ऊपर अन्न का अपमान और होता है। ओढमणी जैसी प्रथा से समय की बर्बादी के साथ रिश्तों में दरार पैदा होती है।
समाधान- बाल विवाह को लेकर समाज में जागृति लायी जानी चाहिए। हालांकि सरकारी कानून के अनुसार यह एक गंभीर किस्म का जुर्म होने के कारण बाल विवाह पर रोक लगी है लेकिन अब भी पूर्ण रूप से बंद नहीं हुए हैं। विवाह समारोहों में अधिक धन और अन्न का अपव्यय करने पर नियम व दंड का प्रावधान हो ताकि फिजूल खर्ची रुकें। ओढमणी का निषेध हो और इसे बढ़ावा देने वाले को दंडित किया जाये।
4. बढ़ता नशे का सेवन- 
विश्वकर्मा समाज भी नशे के सेवन से अछूता नहीं है। शादी समारोह में अफीम की रस्म बताती है कि समाजबंधुओं में नशे की प्रवृत्ति घर करती जा रही है। बीड़ी, पान-मसाला, सिगरेट से लेकर चरस, कोकीन, हेरोइन व शराब का सेवन समाजबंधुओं द्वारा किया जा रहा है।
दुष्परिणाम- नशा नाश का दूजा नाम है। इससे तन-मन-धन तीनों बेकाम है। नशे के सेवन से अल्प समय में मृत्यु होती है। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के इलाज में घर-परिवार रोड पर आ जाता है। खुद के साथ समाज की छवि बिगड़ती है।
समाधान- शादी समारोहों में अफीम की प्रथा पर रोक लगाई जाये एवं दंड व जुर्माना का प्रावधान हो। नशे के नकारात्मक परिणामों से समाजबंधुओं को अवगत कराकर उनकी दुष्वृत्ति छुड़ाये।
5. पर्दा प्रथा- 
समाज में आज भी महिला सश्क्तिकरण पर तमाम बातें होने के बावजूद पर्दा प्रथा यानी घूंघट का रिवाज प्रचलन में है। समाज की माता-बहनों को पूरे दिन घूंघट में रहने से उनका दम घूंटता है और आत्मविश्वास क्षीण होता है। गुलाम भारत में इस्लाम के आक्रमण व प्रभाव के कारण जन्मी पर्दा प्रथा का आजाद भारत में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
दुष्परिणाम- यह महिला सशक्तिकरण में अवरोधक बनती है। महिलाओं की आजादी छीनती है। घर के काम के वक्त महिलाओं को घूंघट संभालने में काफी दिक्कत महसूस होती है।
समाधान- युग बदलने के साथ समाज को भी बदलना होगा। व्यर्थ की प्रथाएं समाज को बोझिल बनाती है। ध्यान रहे कि पर्दा रखने से सम्मान का कोई ताल्लुक नहीं है। इस्लाम की इस प्रथा का हमारा समाज क्यों अंधानुकरण करें? इस पर रोक लगनी चाहिए।
6. गरीबी, निरक्षरता व बालिका शिक्षा का अभाव-
समाज का आर्थिक विकास जितनी तेज गति से होना चाहिए था, उतनी तेज गति नहीं हो पाया। इसलिए आज भी समाज के कई परिवार गरीबी रेखा में जीवन जीने को मजबूर है। ऐसे परिवारों के बच्चे शिक्षा से वंचित है। समाज में निरक्षरता की खाई कम जरूर हुई है लेकिन अब भी शिक्षा के प्रति पुरापंथी लोगों का रवैया पूर्णत: सकारात्मक नहीं हो पाया। यही कारण है कि समाज में बालिका शिक्षा का अत्यंत अभाव है। बेटी को दोयाम दर्जे का नागरिक समझने की मानसिकता ने उसे विद्यालय व महाविद्यालय से दूर कर रखा है।
दुष्परिणाम- गरीबी के कारण समाज की कई प्रतिभाएं उभरने से पूर्व ही दम तोड़ देती है। गरीबी के कारण समाज के लोगों को दूसरे के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं। निरक्षरता के कारण समाज में जागरूकता नहीं आ पाती। बालिका शिक्षा के अभाव के कारण बेटियों को उड़ने के लिए आकाश नहीं मिल पाता।
समाधान- समाज की गरीबी को मिटाने के लिए समाज के जागरूक लोगों को आगे आना होगा। पिछड़े समाजबंधुओं को आर्थिक सहायता पहुंचानी होगी। बालिका शिक्षा व निरक्षरता को दूर करने के लिए समाज को छात्रावास, छात्रवृत्ति व पाठ्य सामग्री मुहैया कराने पर जोर देना होगा।
7. एकता का अभाव व टांग अड़ाने की कुरीति-
समाज में सबसे बड़ी कुरीति है तो एकता का अभाव। इस कुरीति का अंत किये बिना दूसरी कुरीतियों का अंत नहीं किया जा सकता। टांग अड़ाने की प्रवृत्ति समाज में अविश्वास व अंसतोष उत्पन्न करती है। समाज के विकास व उत्थान के लिए परस्पर विश्वास बेहद जरूरी है। जब तक हम एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करेंगे, तब तक समाज में बदलाव नहीं आ पायेगा।
दुष्परिणाम- हमारे एक नहीं होने के कारण हम संख्याबल में सर्वाधिक होने के बाद भी कुछ नहीं कर पाते हैं।
समाधान- हमें समझना होगा की अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, एक अकेली लकड़ी को तो कोई भी तोड़ सकता है। इसलिए एक होने में ही फायदा है। क्या जांगिड़, क्या सुथार (सुतार), क्या लोहार, हम सब विश्वकर्मा है। यह भाव सर्वोपरि रखें। तभी हम अपने समाज को उसकी वास्तविक गरिमा लौटा पायेंगे।
लेखक- देवेन्द्रराज सुथार 
स्थानीय पता- गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर (राजस्थान) 343025
मोबाइल नंबर- 8107177196

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