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लड़की का अपना घर

न जाने किसे कहते हैं अपना घर
जहां नन्हीं सी परी के रूप में जन्म लिया,
जहां बड़े नाजों से पली-बढ़ी
सोचती हुई कि यह है अपना घर।

जहां बड़ी हुई सोचती-सोचती
कि यह है मेरा अपना घर,
पर एक दिन कहा गया कि
ससुराल है तुम्हारा अपना घर।

फिर पिता घर से पराई होकर पहुंची पति के घर
जहां सुनने को अक्सर मिलता,
यह नहीं है तुम्हारा घर
यह है पिता समान ससुर का घर।

न जानें कहां है मेरा अपना घर
कहां जाऊं, किसे बताऊं कौन सा है मेरा अपना घर,
जहां समय-समय पर मिलते रहते ताने
कि चली जाओ तुम अपने घर।

पर न जानें कहां मैं जाऊं
जो हो मेरा अपना घर,
फिर एक दिन मैंने सोचा
फिर एक दिन मैंने सोचा।

खुद ही मेहनत करके
इस धरती पर बनाऊंगी एक छोटी सी कुटिया,
और ये आशियाना ही होगा
मेरा अपना घर।।

लेखक- स्नेहा झा (एम0ए0, बी0एड0)
सिकन्दरपुर, मिरजानहाट, भागलपुर (बिहार) 812005
सम्पर्क सूत्र- 7903991675

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