सुथार समाज की विरासत है राजस्थान की कावड़ कला, इसे संरक्षित करने की आवश्यकता

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जयपुर। राजस्थान की पारंपरिक लोक कला और संस्कृति में सुथार समाज की इस काष्ठ कला का अतुलनीय योगदान है। कावड़ लकड़ी से बनी एक बॉक्सनुमा आकृति होती है जिसे पोर्टेबल मंदिर या छोटा मंदिर भी कह सकते है। यह शीशम, साल, शेलम या मीठे नीम की लकड़ी से बनाया जाता है। इस काष्ठ कला को उदयपुर में खेरादी कला के नाम से पहचाना जाता है।

कावड़ शिल्प कला चितौड़गढ़ जिले के बस्सी गांव के सुथारों की देन है। बस्सी के द्वारका प्रसाद सुथार को भी इस कला के लिए 2019 में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। कावड़ का मतलब किंवाड, कपाट या दरवाजा होता है। इसमें ऐसे दस से बीस पैनल या पथिया होते है जिसमें चित्र बनाएं हुए होते हैं। कावड़ वाचन राजस्थान की एक पारंपरिक कहानी सुनाने की कला है।इसका वाचन कावड़िया भाट करते हैं। भाट कावड़ के प्रत्येक कपाट को खोलते हुए उस पर चित्रित चित्र के बारे में बताते हैं।कावड़ के पैनलों पर रामायण, महाभारत या स्थानीय नायक, संत या संरक्षक की लोक कथाएं चित्रित होती है।

कावड़ के ऊपर सूर्य भगवान या स्थानीय संरक्षक का चित्र बना होता है। इसके सबसे बाहर के कपाट पर द्वारपाल के चित्र बने होते हैं। सारे पैनल खुल जाने पर अंतिम में देवता के चित्र दर्शन होते हैं। कावड़ में भगवान की मूर्ति रखने पर वह बेवाण कहलाती है। प्रभात सुथार ने 350 वर्ष पूर्व लकड़ी की गणगौर बनाकर कावड़ को लोकप्रिय कर दिया था। कावड़ कला को संरक्षित रखने के लिए युवा पीढ़ी को रुचि लेनी चाहिए ताकि राजस्थान की शिल्प कला विरासत में सुथार समाज की इस काष्ठ कला का योगदान सदैव विद्यमान रहे।

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