कोरोना कालखण्ड में ‘गांव’ और ‘गांव की सरकार’ के चुनाव
कोरोना के इस चुनौतीपूर्ण कालखंड के दौरान भी राजस्थान सरकार ने ग्राम पंचायत चुनाव कराने का निर्णय लेकर यह साबित कर दिया कि वह गांवों में बसने वाले असली भारत का दिल से सम्मान करती है। राजस्थान में कोरोना मरीजों की लगातार बढती संख्या के चलते सरकार के लिए कोरोना संकट के कारण टाले गए पंचायत चुनाव कराना कठिन चुनौती थी। मगर, सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले गांवों की पंचायत को जल्द से जल्द सक्रिय करने के लिए कडे़ निर्देशों के साथ आखिर चुनाव करा ही डाले।
भारत वाकई गाँवों का देश है। भारत की अधिकतम जनता गाँवों में निवास करती हैं। महात्मा गाँधी कहते थे कि वास्तविक भारत का दर्शन गाँवों में ही सम्भव है जहाँ भारत की आत्मा बसी हुई है।
आज हममें से कितने लोगों ने गाँव देखे हैं? गाँव जिन्हें भगवान ने बनाया, जहाँ प्रकृति का सौन्दर्य बिखरा पड़ा है- हरे भरे खेत, कल कल करती नदियाँ, कुँयें की रहट पर सजी धजी औरतों की खिलखिलाहट, हुक्का पीते किसान, गाय के पीछे दौड़ते बच्चे, पेड़ों से आम तोड़कर खट्टे आम खाती किशोरियाँ, तितलियाँ पकड़ते किशोर, बाजरा और मक्की की रोटी, दूध दही, मक्खन और घी की बहुलता यह सब कल्पना में आता है जब हम गाँव की बात करते हैं।
भारत के गाँव उन्नत और समृद्ध थे। ग्रामीण कृषक कृषि पर गर्व अनुभव करते थे, संतुष्ट थे। गाँवों में कुटीर उद्योग फलते फूलते थे। लोग सुखी थे। भारत के गाँवों में स्वर्ग बसता था। किन्तु समय बीतने के साथ नगरों का विकास होता गया और गाँव पिछड़ते गये।
भारत के गाँवों की दशा अब दयनीय है। इसका मुख्य कारण अशिक्षा है। अशिक्षित होने के कारण ग्रामीण अत्यधिक आस्तिक, रूढ़िवादी और पौराणिक विचारधारा के हैं। गाँवों में साहूकारों, जमींदारों और व्यापारियों का अनावश्यक दबदबा है। किसान प्रकृति पर निर्भर करते हैं और सदैव सूखा तथा बाढ़ की चपेट में आकर नुकसान उठाते हैं। कर्जों में फंसे, तंगी में जीते, छोटे छोटे झगड़ों को निपटाने के लिए कचहरी के चक्कर लगाते हुए ये अपना जीवन बिता देते हैं।
गाँव में कृषि कार्य पर पूरी तरह निर्भरता अब पूरे परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाती। जनसंख्या के निरंतर विकास से खेत छोटे छोटे हो रहे हैं। अतः कृषि के आधुनिक साधन प्रयोग नहीं हो पाते। संक्षेप में गाँववासी अब नगरों की चकाचौंध से प्रभावित हैं। युवा अब गाँव में नहीं रहना चाहता। वह शिक्षा, नौकरी और सुख सुविधाओं का पीछा करते हुए नगर पहुँचता है।
सरकार गाँवों के विकास के लिये प्रयत्न कर रही है।पर दरअसल हो नही पा रहा है। गाँवों में बिजली, पानी, शिक्षा और इलाज के लिए सभी सुविधायें जुटा रही है। बैंक इत्यादि गाँवों की उन्नति में अपना पूर्ण सहयोग दे रही हैं।
हम सभी लोग जानते है भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्राचीन काल से ही हमारे देश की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि ही रहा है। कृषि पर हमारी निर्भरता के साथ ही यह भी तथ्य हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है कि देश की सत्तर-प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या गाँवों में ही निवास करती है। किसी कवि ने सत्य ही लिखा है– “है अपना हिंदुस्तान कहाँ, यह बसा हमारे गाँवों में।”
अत: भारतवर्ष के महत्व का वास्तविक मूल्यांकन यहाँ के गाँवों से ही संभव है। उन्हें किसी भी दृष्टिकोण से पृथक् नहीं किया जा सकता है। प्राचीन काल में ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला हमारा देश धन-धान्य से परिपूर्ण था परंतु विदेशियों के निरंतर आक्रमण तथा इसके पश्चात् अंग्रेजों का आधिपत्य होने के उपरांत भारतीय गाँवों की दशा अत्यंत दयनीय व सभी के लिए चिंता का विषय बन गई।
भारतीय गाँव समय के साथ बेरोजगारी, अज्ञानता तथा पिछड़ेपन का पर्याय बनकर रह गए। भारतीय गाँवों की दयनीय व जर्जर अवस्था के अनेक कारण है। इतिहास की ओर यदि हम दृष्टि डालें तो हम देखते हैं कि मुगलों के आक्रमण के पश्चात् जब देश में अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ, तब गाँवों की दशा अत्यंत चिंतनीय थी।
इसका प्रमुख कारण था कि अंग्रेजों ने कभी भी भारत को आत्मसात् नहीं किया। उनका दृष्टिकोण सदैव भारत के प्रति व्यावसायिक ही रहा जिसके फलस्वरूप यहाँ के कुटीर उद्योग तथा कृषि व्यवस्था का ह्रास होता रहा। अंग्रेजों के साथ-साथ जमींदारों व सेठ-साहूकारों के निरंतर शोषण ने भी ग्रामीणों को उबरने का कभी अवसर प्रदान नहीं किया।
देश के गाँवों में रहने वाले अधिकांश लोग आज भी रूढ़िवादिता तथा अंधविश्वासों से ग्रसित है। पुरानी परंपराओं तथा सामाजिक बंधनों ने उन्हें इस प्रकार जकड़ रखा है कि वे स्वतंत्रता प्राप्ति के कई दशकों के बाद भी विकास की प्रमुख धारा से स्वयं को पृथक् किए हुए है।
जातिवाद, भाषावाद जैसी विषमताएँ आज भी उतनी ही प्रबल हैं जितनी वह पहले हुआ करती थी। झूठी शान-शौकत अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा हेतु कुछ लोग सामर्थ्य से अधिक कर्ज ले लेते हैं जिसे वे जीवन पर्यंत चुकाने में असमर्थ रहते है।
गरीबी और अशिक्षा के कारण लोग निरंतर बच्चे पैदा करते रहते हैं जो उनके जीवन स्तर को तो नीचे की ओर खींचता ही है साथ ही साथ समुचित भरण-पोषण व शिक्षा के अभाव में बच्चों के भविष्य को भी अंधकारमय बना देता है।
गाँवों के लोग अभी भी कई प्रकार की ऐसी समस्याओं से जुड़े है जिनका समाधान थोड़े से सामूहिक प्रयासों से संभव है। गाँवों में ऊर्जा के गैर-परंपरागत साधनों के प्रयोग की काफी संभावनाएँ हैं परंतु गाँवों की निरंतर उपेक्षा के कारण लोग अभी तक उपले जलाकर खाना पका रहे है। तो कही कही गाँवो में बदलाव भी आया है।
विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने अपार सफलता अर्जित की है जिसके फलस्वरूप दुनिया सिमटती हुई प्रतीत होती है। विकास की इस दौड़ में भारतीय गाँव भी अब अछूते नहीं रहे है। हमारी सरकार भी ग्रामीण विकास के लिए निरंतर प्रयास कर रही है।
आज दूर-दराज के गाँवों को भी बिजली-पानी आदि सभी जरूरत की चीजें उपलब्ध कराई जा रही है। दूरदर्शन व अन्य संचार माध्यमों के द्वारा ग्रामीण लोगों को उत्तम कृषि, स्वास्थ्य व उत्तम रहन-सहन संबंधी जानकारी दी जा रही है।
गाँवों को सड़क तथा रेलमार्गों द्वारा शहरों से जोड़ने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। गाँवों के विकास हेतु सरकार द्वारा अनेक परियोजनाएँ समय-समय पर प्रस्तुत की गई हैं। इनमें पंचायती राज व्यवस्था भी प्रमुख है जिससे ग्रामीण दशा में काफी सुधार हुआ है। सरकार, ग्रामीणजनों तथा समस्त भारतीय नागरिकों का सामूहिक प्रयास अवश्य ही रंग लाएगा और हमारे भारतीय गाँव आदर्श गाँव बन सकेंगे।
-प्रकाश चन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार