भगवान विश्वकर्मा की देन हैं, मानव जाति को शिल्पकला विज्ञान के सभी चमत्कार

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सृष्टि के आदिकाल, जो पाषाण युग कहलाता है, में आज का यह मानव समाज वनमानुष के रूप में वन-पर्वतों पर इधर से उधर उछल-कूद कर रहा था। मनुष्य की उस प्राकृतिक अवस्था में खाने के लिए कंदमूल, फल और पहनने को वलकल तथा निवास के लिए गुफाएं थीं। उस प्राकृतिक अवस्था से आधुनिक अवस्था में मनुष्य को जिस शिल्पकला विज्ञान ने सहारा दिया, उस शिल्पकला विज्ञान के अधिष्ठाता एवं आविष्कारक महर्षि आचार्य विश्वकर्मा थे। शिल्प विज्ञान प्रवर्तक अथर्ववेद के रचयिता कहे जाते हैं।
अथर्ववेद में शिल्पकला विज्ञान के अनेकों आविष्कारों का उल्लेख है। पुराणों ने भी इसको विश्वकर्मा रचित ग्रंथ माना है, जिसके द्वारा अनेकों विद्याओं की उत्पत्ति हुई।
मानव जीवन की यात्रा का लंबा इतिहास है और इसका बहुत लंबा संघर्ष है। भगवान विश्वकर्मा ने उसे सबसे पहले शिक्षित और प्रशिक्षित किया ताकि उसे विभिन्न शिल्पों में प्रशिक्षित किया जा सके। इस तरह मानव की संस्कृति और सभ्यता का प्रथम प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा जी हुए जिसे वेदों ने स्वीकार किया है और उनकी स्तुति की है।
इस प्रकार विभिन्न कलाओं का विकास हुआ। धर्म ग्रंथों में कहा जाता है कि भगवान विश्वकर्मा के पांच पुत्र हुए। उन्होंने अपने पांचों पुत्रों को विभिन्न शिल्पों में दक्ष बनाया। प्रथम पुत्र मनु लौह कला में प्रवीण हुआ, दूसरा पुत्र मय काष्ठ कला का ज्ञाता बना, तीसरे पुत्र स्वष्टा ने ताम्र कला में विशेषता प्राप्त की, चौथा पुत्र शिल्पी पाषाण कला का मर्मज्ञ हुआ और पांचवां पुत्र दैवज्ञ स्वर्ण कला का ज्ञाता बना। उनके पांचों पुत्रों ने विश्वकर्मा के शिल्पकला विज्ञान का विकास और विस्तार किया, जिसके फलस्वरूप मानव जाति को सुख-सुविधा के लिए अनेक साधन-प्रसाधन प्राप्त हुए।
विश्वकर्मा ने मानव जाति को शासन-प्रशासन में प्रशिक्षित किया। उन्होंने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार और निर्माण किया, जिससे मानव जाति सुरक्षित रह सके। उन्होंने अपनी विमान निर्माण विद्या से अनेक प्रकार के विमानों के निर्माण किए जिन पर देवतागण तीनों लोकों में भ्रमण करते थे। उन्होंने स्थापत्य कला से शिवलोक, विष्णुलोक, इंद्रलोक आदि अनेक लोकों का निर्माण किया। भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, इंद्र के वज्र और महादेव के त्रिशूल का भी उन्होंने निर्माण किया जो अमोघ अस्त्र माने जाते हैं। आज शिल्पकला विज्ञान के जो भी चमत्कार देखने को मिलते हैं, वे सभी भगवान विश्वकर्मा की देन है।
भारतवर्ष के सामने अखंडता, सांप्रदायिक सद्भावना तथा सामाजिक एकता की समस्याओं का समाधान विश्वकर्मा दर्शन में है। भारत को स्वावलंबी और स्वाभिमानी राष्ट्र बनाने की जो बात कही जाती है, उसका समाधान भी विश्वकर्मा के शिल्पकला विज्ञान में ही है। यदि इसको विकसित किया जाए तो भारत से बेकारी और गरीबी दूर हो जाएगी और पृथ्वी पर भारत का एक अभिनव राष्ट्र के रूप में अवतरण होगा। सभी देवताओं की प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने पुरोहित के रूप में पृथ्वी पूजन किया जिसमें ब्रह्या यजमान बने थे। पुुरोहित कर्म का प्रारंभ तभी से हुआ।
सभी देवताओं ने भगवान विश्वकर्मा को ही सक्षम देव समझा तथा उन सबके आग्रह पर वह पृथ्वी के प्रथम राजा बने, इन सभी चीजों का जिक्र भारतवर्ष के वेद पुराणों में है। कश्यप मुनि को राज-सत्ता सौंपकर विश्वकर्मा भगवान शिल्पकला विज्ञान के अनुसंधान के लिए शासन मुक्त हो गए क्योंकि भारत के आर्थिक विकास और स्वावलंबन के लिए यह आवश्यक था। कुछ दिनों के शासन में विश्वकर्मा भगवान ने शासन को सक्षम, समर्थ तथा शक्तिशाली बनाने के अनेकों सूत्रों का निर्माण किया जिस पर गहराई से शोध करने की आज आवश्यकता है।
संकलनकर्ता— सुनील विश्वकर्मा

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