अफसर दफ्तरों में और डेंगू नगरों में !
(प्रकाश चंद्र शर्मा) नगरीय स्वशासन भारत में नगरीय शासन व्यवस्था का आधार स्तंभ है। पूर्ववर्ती ग्रामीण बाजारों के विस्तार और नए-नए बाजार केंद्रों की स्थापना ने भारत में आधुनिक नगरों की नींव डाली। सुव्यवस्थित और अन्य जरूरी दैनिक आवश्यकताओं के लिए नगरीय शासन व्यवस्था की आवश्यकता महसूस हुई। सुव्यवस्थित रहन-सहन से मानव जीवन के विकास और कार्य की सुगमता का विचार आदिकाल से ही मनुष्य के मस्तिष्क से निकलकर धरातल पर आ चुका था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता की खुदाई में मिले सुव्यवस्थित शहरों के अवशेषों से मिलता है। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने भी अपनी किताब ”इंडिका” में भारत में एक नगर के शासन का विवरण लिखा है, जिसमें नगरीय शासन 5-5 सदस्यों की 6 समितियों में विभाजित था।
आधुनिक भारत में नगरीय स्वशासन की शुरुआत सन् 1667 में मद्रास नगर पालिका की स्थापना से हुई। भारत में नगरीय स्वशासन की स्थापना का श्रेय लॉर्ड रिपन को दिया जाता है, जिन्होंने नगरीय स्वशासन की व्यवस्था को कानूनी कपड़े पहनाए और उसी के परिणाम स्वरूप कलकत्ता और बम्बई नगरपालिका की स्थापना हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में नगरीय स्वशासन को सरकारों द्वारा कार्यकारी आदेशों द्वारा संचालित किया जाता रहा। नगरीय शासन व्यवस्था भारतीय संविधान में राज्य सूची का विषय रखी गई। 1947 से लेकर 1992 तक स्थानीय निकायों में अनियमित चुनाव प्रक्रिया,राज्य सरकारों द्वारा राजनीतिक लाभ हेतु उन्हें असमय भंग करना, संवैधानिक मान्यता का अभाव, शक्तियों व अधिकारों का अभाव, दयनीय आर्थिक स्थिति, महिलाओं और अनुसूचित जाति व जनजाति के उचित प्रतिनिधित्व का अभाव के चलते इनमें व्यापक सुधार की मांग समय-समय पर उठती रही थी।
इसी उद्देश्य से नगरीय स्वशासन को अधिक कार्यक्षम और लोकतांत्रिक बनाने के लिए संसद द्वारा 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 पारित किया गया। इस संविधान संशोधन के तहत बारहवीं अनुसूची जोड़ी गई। संविधान के भाग 9A में अनुच्छेद 243 पी से 243 जेड जी तक नगरीय स्वशासन व्यवस्था लिखित है। भारत में नगरीय स्वशासन को जनसंख्या के आधार पर तीन भागों में बांटा गया है। बीस हजार से एक लाख की जनसंख्या तक नगर पालिका/नगर पंचायत, एक लाख से पांच लाख तक नगर परिषद, पांच लाख से अधिक जनसंख्या पर नगर निगम बनाए जाने का प्रावधान है।
पिछले 25 से 30 वर्षों में भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में आई बेरोजगारी, बच्चों को बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की चिंता के कारण ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर नागरिक पलायन में बढ़ोतरी हुई है। इस कारण शहरी व्यवस्था और शहरी संसाधनों पर शहरीकरण का दबाव बढ़ा है। संविधान की 12वीं अनुसूची में नगरीय स्वशासन की संस्थाओं द्वारा कार्य करने के लिए 18 विषयों की जिम्मेदारी निश्चित की गई है। इनमें से प्रमुख कार्य नगर नियोजन,नगर की सफाई व्यवस्था, संक्रामक रोगों से बचाव,सार्वजनिक सड़कों और भवनों पर प्रकाश की व्यवस्था, सार्वजनिक सड़कों का निर्माण एवं रखरखाव, अग्निशमन और जन्म मृत्यु का पंजीकरण इत्यादि है लेकिन दुखद पहलू है यह है कि नगरीय स्वशासन ने कार्य क्षमता के आधार पर संविधान द्वारा प्रदत्त कार्यों में निम्न कोटि का आचरण किया है। नगरीय निकायों में व्याप्त भ्रष्टाचार, कार्यों की निम्न गुणवत्ता, कार्य संस्कृति का अभाव, कार्य के प्रति जड़ता की सोच ने नगरीय स्वशासन की नींव को कमजोर कर दिया है।
नगरों की बेतरतीब बसावट ने डिज्नीलैंड की भूलभुलैया का स्वरूप ले लिया है। आम रास्तों और गलियों पर हो रहे अतिक्रमण के मामलों में बढ़ोतरी ने नगर नियोजन के प्रति नगरीय निकायों की प्रतिबद्धता को दर्शाया है। भू माफियाओं द्वारा दिए गए सरकारी मुद्रित कागज का लालच नगरीय निकायों की आंखों पर पट्टी बनकर लिपट गया है। जिससे शहरों में अवैध निर्माण का कारोबार अमरबेल बन गया है। संविधान द्वारा नगरीय निकायों को प्रदत्त 18 कार्यों में से एक कार्य, रोगों की रोकथाम और साफ-सफाई के कार्यों पर भी निकायों का प्रदर्शन दांतो तले उंगली दबाने लायक रहा है। वर्तमान में प्रदेश में फैल रही डेंगू की बीमारी ने घर- घर तक अपने पैर पसार लिए है। बरसात के मौसम ने जाते-जाते कीचड़, गंदगी और जलभराव के अनाथ बालक की सौगात राज्य को दी, जिसे नगरीय निकायों ने कभी अपनाया ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि कोरोना वायरस से उबर रही राज्य की जर्जर चिकित्सा व्यवस्था एक बार फिर दबाब में आ गयी। डेंगू के मच्छर की रोकथाम के लिए की जाने वाली फोगिंग और जलभराव पर एम.एल.ओ. के छिड़काव का काम अक्टूबर माह के मध्य तक गिने चुने ही नगरीय निकायों द्वारा किया गया था। परिणामस्वरूप अगस्त माह से शुरू हुई डेंगू की ”मोस्क्यूटो एक्सप्रेस” ने बेरोकटोक अक्टूबर माह के मध्य तक लंबी दूरी तय कर ली। इस दौरान नगरीय निकाय ढ़ाई माह तक आंखों पर पट्टी बांध डेंगू की इस ”मोस्क्यूटो एक्सप्रेस” को हर सिग्नल पर हरी झंडी दिखाते रहे और डेंगू की बीमारी महामारी का रूप लेकर कई जिंदगियों को रौंदती हुई बिना रुके सरपट दौड़ती रही।
राजस्थान राज्य भी स्वायत्त शासन में आई घोर लापरवाही से अछूता नहीं है। जिस विभाग के जिन अफसरों के कंधों पर नगरीय क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों के हितों के पोषण का भार था, उन अधिकारियों ने सचिवालय या स्वायत्त शासन विभाग के दफ्तरों से बाहर निकलना और निकलकर जनता की तकलीफों को जानने की कभी जहमत ही नहीं उठाई। स्वायत्त शासन विभाग और नगरीय निकाय विभाग (यूडीएच) के सचिव इस तथ्य का जीता जागता उदाहरण हैं।
नगरीय निकायों के रवैये ने राष्ट्र को निष्पर्ण वृक्ष बनाने की ओर धकेल दिया है। राजा हर्षवर्धन की राज सभा में उठे यक्ष प्रश्न ”शासन क्या है” का राज कवि बाणभट्ट द्वारा दिया गया उत्तर ”दंड ही शासन है” की अवधारणा राज्य सरकारें भूल चुकी है। यदि सरकारें जनता के जीवन जीने के पहलुओं को इसी तरह भूलती रहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां जनता के अंतर्मन से निकलकर होठों पर गुनगुनाहट के रूप में आएंगी-
”दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो” ।
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” ।
-प्रकाश चंद्र शर्मा, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक