अमर उवाच- बिहार चुनाव और विश्वकर्मा समाज

अमरनाथ शर्मा, पटना-
चुनावी वर्ष में “भगवान विश्वकर्मा” विकास के प्रतीक बन गए हैं। भाजपा तंत्र मोदी को आधुनिक विश्वकर्मा की संज्ञा दे रही है, तो जदयू के नेता नीतीश को बिहार के विश्वकर्मा बता रहे हैं, तो कुछ लोग लालू को कलयुग का शंकर। चुनावी साल है किस्से और भी गढ़ें जाएंगे। पर विचारणीय है कि विश्वकर्मा वंशज अपने को कहां पाते हैं?
कोई ठगा, तो कोई सताया दबाया, तो कोई हाशिए पर। नगण्य संख्या में लोग व्यापार और नौकरी में हैं। फिर भी कुछ चुनावी बाकूड़े पूरे दमखम से अपने-अपने दलों में सेटिंग-गेटिंग के लिए संपूर्ण विश्वकर्मा समाज को झोंकने में लगे हैं। मानो जमीन तैयार है फसल अब लगी और तुरंत कटी। पर ऐसा होता नहीं है।
हर चुनाव के वक्त यह शगूफा छोड़ा जाता है की जो दल सबसे ज्यादा विश्वकर्मा समाज को टिकट देगी उसी को वोट देंगे। कुछ को टिकट मिल भी जाए तो क्षेत्र तैयार नहीं है। किसी नेता दल विशेष की हवा बयार भी नहीं है जो करिश्मा दिखा सके। कुछ एक नेता अपनी जमीन तैयार करने में पूरे तन-मन से लगे हैं। पर वे अपना दायरा “विश्वकर्मा जाति” के बीच सीमित कर रखा है। जात से जमात तक अपनी पैठ बनाए बिना दिल्ली बिहार दूर है। यहां गौरतलब है कि राहुल ने अलग ही बात कही है, आप प्रतिनिधित्व हिस्सा मांग रहे हो जबकि आप पूरी सत्ता के हकदार हो।
“भगवान विश्वकर्मा” ब्रह्मांड निर्माता थे, विश्वकर्मा वंशी देश निर्माता तो बनें। अपने भाग्य का विधाता तो बन ही सकते हैं। विश्वकर्मा वंशी की इस जद्दोजहद की हर कोशिश अंजाम तक पहुंचे मेरी समर्थन और शुभकामनाएं हैं।
(लेखक- अमर नाथ शर्मा, पटना, बिहार)