भावना से बढ़कर कोई संगठन नहीं

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जिसे देखिये वही संगठन की बात करता है। संगठन क्या है और इसके क्या मायने है? शायद ही इसका समुचित उत्तर मिल पाये। यदि उत्तर मिल भी गया तो वह सिर्फ शब्द तक ही सीमित है। संगठन बनाना कोई बड़ी बात नहीं है, संगठन तो आये दिन बन रहे हैं। परन्तु क्या संगठनकर्ताओं ने कभी सोचा कि उनके संगठन के प्रति लोगों का भावनात्मक लगाव है? यदि नहीं, तो फिर संगठन बनाने का कोई औचित्य नहीं।
पत्थर तो सिर्फ पत्थर होता है, पर पत्थर में भगवान हैं, यह हमारी भावना है। जब हमारे मन मष्तिस्क में यह भावना उमड़ती है कि पत्थर में भगवान हैं तो हम उसकी पूजा करते हैं। ठीक उसी तरह जब हमारी आस्था, हमारी भावना किसी संगठन से या समाज से जुड़ेगी तभी हम उसकी पूजा (कार्य) कर सकेंगे। भावना, तीन अक्षर का एक शब्द जरूर है पर इसका स्वरूप बहुत बड़ा है। हमारी भावना जहां जुड़ती है, हम वहीं भक्ति करते हैं। वह चाहे भगवान का मन्दिर हो या समाज का मन्दिर।
आये दिन समाज में नये-नये संगठन खड़े हो रहे हैं। क्या हमने कभी जानने की कोशिश की, ऐसा क्यों हो रहा है? जो लोग नया संगठन बना रहे हैं क्या उन्होंने अपने दिल पर हाथ रख खुद से पूछा कि पूर्व में वह जिस संगठन से जुड़े रहे, क्या उस संगठन के साथ उनकी भावना जुड़ी थी? यदि हां, तो नये संगठन की जरूरत क्यों? यदि कोई खामी रही तो उसे सुधारने की कोशिश हुई? सच्चाई तो यही है कि हम कहीं भी भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पाते हैं, यही कारण है कि अगले की भावना भी हमारे प्रति नगण्य रहती है। हम कितना भी संगठन बना लें पर जबतक लोगों के साथ भावनात्मक जुड़ाव नहीं होगा तब तक सफलता सम्भव नहीं है।
भावना का ही दूसरा रूप आस्था है, इसे भक्ति भी कह सकते हैं। हम जिस तरह भक्तिभाव में बहकर पत्थर में बसे भगवान की पूजा करते हैं और विश्वास करते हैं कि भगवान कुछ अच्छा करेंगे। ठीक उसी तरह संगठन और समाज के प्रति भी आस्थावान होना पड़ेगा। संगठन, समाज में विश्वास पैदा करे और समाज संगठन के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े तब जाकर दोनों की सार्थकता सिद्ध होगी। आज भी गांव के लोग संगठन का मतलब नहीं समझ पाते। इसमें गलती उनकी नहीं, गलती संगठनकर्ताओं की है जो उन्हें जोड़ने का प्रयास नहीं कर पाये। हमारे संगठन सिर्फ बैठकों व सम्मेलन तक सीमित रह गये हैं। गांव के लोगों को संगठन से जोड़ने, उनमें विश्वास पैदा करने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। जब लोगों के मन में विश्वास नहीं पैदा होगा तो लोग भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पायेंगे। और जब तक संगठन के साथ लोगों का भवनात्मक लगाव नहीं होगा तो संगठन पूर्ण नहीं होगा। ऐसे संगठन बनते-बिगड़ते रहेंगे और समाज विश्वास-अविश्वास की चक्की में पिसता रहेगा। मेरा संगठनकर्ताओं से यही अनुरोध है कि लोगों के मन में विश्वास पैदा कीजिये जिससे लोग भावनात्मक रूप से संगठन से जुड़ सकें।
—कमलेश प्रताप विश्वकर्मा

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